
जबलपुर, यशभारत। कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर भेड़ाघाट में लगने वाला परंपरागत मेला अब भले ही अपने पुराने स्वरूप में नहीं रहा, लेकिन आसपास के लोगों के लिए इसका आकर्षण और परंपराएं आज भी उतनी ही जीवंत हैं। लगभग 40 से अधिक गांवों के लोग मेले की परंपराओं को बनाए रखते हुए इसमें हिस्सा लेते हैं।
एक दौर में भेड़ाघाट मेला 5 दिनों तक चलता था, और इसे प्राथमिक पाठ्यक्रम में भी शामिल किया जाता था। उस समय इस दिन स्थानीय अवकाश घोषित किया जाता था और दूर-दूर से व्यापारी, कलाकार और ग्रामीण हिस्सा लेने आते थे। मेले में क्षेत्रीय संस्कृति की झलक साफ दिखाई देती थी और ग्रामीण जीवन की विविध रंगतें देखने को मिलती थीं।

आज मेला केवल दो-तीन दिन तक सीमित है। पाठ्यक्रम में इसका वर्णन नहीं रहता और स्थानीय छुट्टी भी नहीं होती। लेकिन मेले की सांस्कृतिक महत्ता और ग्रामीण उत्सव का आनंद अब भी बरकरार है। खान-पान की देहाती वस्तुएं, घरेलू उपयोग का सामान, झूले—जो अब हाईटेक हो गए हैं—और स्थानीय हस्तशिल्प आज भी लोगों को आकर्षित करते हैं।
स्थाई लोग बताते हैं कि मेला सिर्फ उत्सव ही नहीं, बल्कि लोगों के मेल-मिलाप का माध्यम भी है। यह मेल ग्रामीण समाज को जोड़ने, पुराने रिश्तों को मजबूत करने और सांस्कृतिक विरासत को बनाए रखने में अहम भूमिका निभाता है। इस बार भी भेड़ाघाट मेला दो-तीन दिनों तक चलेगा और आसपास के गांवों के लोग तथा शहरवासी मेले की चहल-पहल, झूले, प्रदर्शनी और खान-पान का आनंद लेने पहुंचेंगे।







