डोरीलाल की चिन्ता :- मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम!!
एक बारह साल की बच्ची फटे कपड़ों और निर्ममता से नोचे गए शरीर के साथ महाकाल लोक के शहर उज्जैन में दो घंटे तक मदद मांगती रही। वो गली गली रोते हुए घूम रही थी। असीम पीड़ा से जूझ रही थी। मगर किसी ने उसकी ओर मदद का हाथ नहीं बढ़ाया। सी सी वी फुटेज ये बात बता रहा है। जनता चुप है। अंततः पुलिस ही काम आई। उसी ने बच्ची को अस्पताल पंहुचाया। उसके साथ ऐसी दरिंदगी की गई थी कि शायद उसे किसी बड़े शहर में इलाज के लिए भेजा जाएगा।
जिसने इस कुकृत्य को किया है वो पकड़ लिया गया है। वो एक ऑटो ड्राइवर है। शहर में और देश में शांति है इससे जाहिर है कि पीड़ित और पीड़क का धर्म एक है और वो अपन लोगों का है। उन लोगों का नहीं है। वरना…………क्या क्या न हो जाता। उज्जैन एक धार्मिक नगरी है। वहां के लोग बहुत धार्मिक हैं। वहां महाकाल के अलावा हर गली हर सड़क पर मंदिर ही मंदिर बने हुए हैं। भगवान हरेक की पंहुच के अंदर हैं।
डोरीलाल का एक सवाल है। जब बच्ची 2 घंटे तक गलियों में मदद मांगती घूमी तो किसी ने उसकी मदद क्यों नहीं की। उसे उस उम्र की लड़की की मांओं ने देखा होगा। पिताओं ने देखा होगा। बुजुर्गों ने देखा होगा। माताओं बहनों ने देखा होगा। सड़क से गुजरते नौजवानों और लड़के लड़कियों ने देखा होगा। ऐसा कैसे हुआ कि किसी का जमीर न जागा। किसी का दिल न दुखा। लोगों ने कैसे अपने आप को रोक लिया उस बच्ची की मदद करने से। ये एक जरूरी सवाल है जिसका हल केवल पुलिस को ही नहीं वरन् सभी नागरिकों को खोजना चाहिए।
ये पहला मौका नहीं है। पन्द्रह साल पहले भी ऐसा हो चुका है। याद करो निर्भया कांड को। वो लड़का और वो लड़की निर्भया बिना कपड़ों के दर्द से बिलबिलाते हुए सड़क के किनारे खड़े होकर मदद की गुहार लगा रहे थे। स्कूटर, कारें बसें निकल रहे थे। मगर कोई रूका नहीं। कोई भी नहीं। जब उन्हें मदद की जरूरत थी तब कोई नहीं आया। फिर लाखों लोग – लड़के लड़कियां सड़क पर उतर आए। निर्भया केस के आधार पर कानून बना। निर्भया फंड बना। निर्भया के मां बाप मुकदमा लड़ते रहे। सालों तक। बात आई गई हो गई।
डोरीलाल और उनका मित्र भोपाल में स्कूटर से जा रहे थे। सड़क पर रेत पड़ी थी। स्कूटर फिसल गई। गिर पड़े। स्कूटर ऊपर और हम लोग नीचे। बीच सड़क पर। हमसे दस फीट दूर गन्ने के रस वाला और चाय वाला था। दस पन्द्रह लोग थे। कोई हमारी मदद के लिए नहीं आया। आज भी डोरीलाल के मन में सवाल उठता है कि ऐसा क्यों होता जा रहा है ?
ये राजनैतिक सवाल नहीं है। यह कानून व्यवस्था का सवाल भी नहीं है। हमारी मानसिकता ऐसी क्यों है। ऐसा नहीं है कि कभी कोई किसी की मदद नहीं करता। लेकिन ऐसी घटनाएं आम होती जा रहीं हैं जब कोई किसी पीड़ित की कोई मदद नहीं करता। लोग मदद करने के बजाए वीडियो बनाने लग जाते हैं। इसीलिए उज्जैन की जिन गलियों में वो बच्ची मदद के लिए घूमी थी उन गलियों में जाकर यह सर्वे किया जाना चाहिए और लोगों से पूछा जाना चाहिए कि आप लोग उस बच्ची की मदद के लिए क्यों आगे नहीं आए ? किस भय ने आपको रोका मदद करने से। हमारे समाज के भविष्य के लिए यह एक जरूरी है। जब करोना के समय में जीवन दांव पर लगाकर लोग दूसरों की मदद कर रहे सकते हैं तो फिर राह चलते किसी एक्सीडेंट में घायल की मदद से कैसे कतरा सकते हैं।
याद करिये कि सीधी के मूत्रविसर्जन कांड में कितना हंगामा हुआ ? मूत्र विसर्जन किसी ने किया और क्षमा मुख्यमंत्री मांग रहे हैं। उसके पांव धो रहे हैं। क्यों भाई ? पांव क्यों धो रहे हो ? किसके पाप धो रहे हो ? धोना ही था तो उसका सिर धोते, अच्छे से साबुन पानी से नहलाते धुलाते। बालों में तेल लगाकर कंघी करते, साफ धुले प्रेस किए कपड़े पहनाते तो समझ में आता। मगर मुख्यमंत्री के घर में (या दफ्तर में) पांव पखारे जा रहे हैं ये क्या मजाक है।
दो ही दिनों में भुला दिया जायेगा ये महाकाल लोक वाला कांड। फिर दसियों हजार करोड़ों के शिलान्यासों, उद्घाटनों, लोकार्पणों, स्मारकों और मूर्तियों की भीड़ में लड़की, उसकी पीड़ा और उसका समूचा अस्तित्व भुला दिया जाएगा। हम और आप भी जब भाजपा-कांग्रेस, एनडीए-इंडिया का खेल खेलेंगे तो इस घटना को इक्के की तरह इस्तेमाल करेंगे और भूल जाएंगे कि जब कोई मुसीबत में था तो हम उसके साथ नहीं थे।
मुक्तिबोध की लंबी कविता का एक अंश –
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया!!
बताओ तो किस-किसके लिए तुम दौड़ गये,
करुणा के दृश्यों से हाय! मुँह मोड़ गये,
बन गये पत्थर,
बहुत-बहुत ज्यादा लिया,
दिया बहुत-बहुत कम,
मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम!!
डोरीलाल मनुष्यता प्रेमी