जबलपुर यश भारत। राजनीति भी अजीबोगरीब है कब क्या रंग दिखा दे कुछ कहा नहीं जा सकता। इस बार के विधानसभा चुनाव भी कुछ इसी तरह के हैं। जो नित्य नए रंग दिखा रहे हैं और नेता भी कुछ ऐसे हैं वह किस रंग में रंग जाए कहां नहीं जा सकता। लेकिन इन बदलते रंगों में सबसे ज्यादा बदरंग हो रहे हैं कार्यकर्ता। उनकी हालत बस वैसी ही है जैसी नाड़े के साथ पैजामे की प्रतिबद्धता रहती है ।नाड़ा जिसके साथ भी गठबंधन कर लेता है पैजामा पूरी शिद्दत के साथ उसके नंगेपन को ढकने में लग जाता है। विधानसभा चुनाव में टिकटों का दौर शुरू हुआ तो फिर बाघी भी मैदान में उतर गए और जब बागी हुए तो अपने कार्यकर्ताओं की ताकत दिखाई उनकी दम पर अपना वर्चस्व बताया और फिर प्रत्याशी के साथ पार्टी के साथ अपने समीकरण बैठालिए। लेकिन कार्यकर्ता तो कार्य करता है वह पूरी शिद्दत के साथ अपने नेता के पीछे खड़ा रहा। जैसे नाड़े के साथ पजामा लगा रहता है। हालांकि कार्यकर्ता पार्टी का था लेकिन समर्पण नेता के प्रति था। अब नेताजी ने तो अपनी दुकान सजा ली पार्टी के साथ प्रत्याशी के साथ अपने समीकरण बना लिए। लेकिन बेचारा कार्यकरता अब कहीं का न रहा । नेता के साथ खड़ा हुआ तो पार्टी से बेमतलब का बेर हो गया वही प्रत्याशी की आंखों में भी खटक गया। ऐसे में नेताजी ने तो अपनी बात मनवा ली लेकिन कार्यकर्ता ठगा सा महसूस कर रहा है।
बात यहां न भाजपा की है न कांग्रेस की है। बात तो है राजनीति के चरित्र की। जहां राजनीति के अंदर भी राजनीति के दाव पेच खेले जाते हैं । लेकिन आदनासा कार्यकर्ता अपनी निष्ठा और अपने समर्पण को लेकर अपने नेता के पीछे दौड़ लगाता है। इस दौड़ में वह कहीं न कहीं अपनी पहचान को पीछे छोड़कर बहुत आगे निकल जाता है। चुनाव है हो जाएंगे लेकिन राजनीति तो लगातार चलती है नेता ने तो अपनी बात मनवा ली अपना कद बढ़ा लिया लेकिन उसका कद बढ़ाने में जिन कार्यकर्ताओं का संघर्ष है वह कहीं पीछे छूट गए और खुद को ठगा सा महसूस कर रहे हैं। जिनके कंधों पर रखकर बंदूक चलाई गई अब वे कंधे खुद को कमजोर और लाचार समझ रहे हैं।