यशभारत खास खबर : वैज्ञानिक हतप्रभ : ऐसी मसूर मिली जिसमें नहीं लगता पाला, कुटकी में नहीं लगते कीट
पहली बार नजर में आया ऐसा अनाज, आदिवासी पुरातन काल से कर रहे उपयोग

जबलपुर, यशभारत। किसान हमेशा मौसम की मार से प्रताडि़त रहते है, कभी फसल में पाला लग जाता है तो कभी कीटों की अधिकता से मसूर, चना आदि की फसल में भारी नुकसान होता है, लेकिन ऐसा भी अनाज कि सानों द्वारा वर्षों से उगाया जा रहा है जिसमें ना तो पाला लगता है और ना ही कीट ही उसे नृष्ट कर पाते है। इतना ही नहीं जब वैज्ञानिकों ने इन फसलों का लैब में परीक्षण किया तो यह देखकर दंग रह गए कि उनमें जिंक और अनेक पोषक तत्व भरपूर मात्रा में मौजूद है तो शरीर के लिए अति आवश्यक है। इन फसलों का उत्पादन आदिवासी पुरातन काल से करते आ रहे है, लेकिन अब कहीं जाकर कृषि वैज्ञानिकों की नजर में यह फसल आई। जिसे अब संरक्षित कर बढ़ावा दिया जाएगा।
आदिवासी अंचलों में पुरातन काल से उगाई जा रही फसलों की किस्मों के संरक्षण का कार्य कृषि विश्वविद्यालय ने शुरू किया है। इसके तहत इन फसलों को संरक्षित करने के साथ ही इनके सरंक्षण की दिशा में भी पहल शुरू की जा रही है। इसके लिए विश्वविदयालय द्वारा वैज्ञानिकों की टीम तैयार की गई है जो खेती से जुड़ी किस्मों और पद्धतियों पर कार्य कर रही है।
एसबी अग्रवाल, कृषि विश्वविद्यालय सीनियर वैज्ञानिक ने बताया कि आदिवासी हमेशा स्वस्थ्य और दीर्घायु होते है। जिसका राज उनका खाद्यन्न है। जब आदिवासी जिले मंडला, बालाघाट कुंडम, छिंदबाड़ा डिन्डौरी में सर्वेक्षण किया गया तो पाया कि यहा पैदा होने वाली फसल विभिन्न खूबियां अपने आप में समेटे हुए है।
1 हजार से अधिक किस्म हुईं चिन्हित
यह जादूई फसलें धान, कुटकी सहित गेहूं चना है। जिसकी करीब 1 हजार से अधिक किस्म अभी तक चिन्हित की जा चुकीं है। किसानों द्वारा लंबे समय से इन फसलों का उत्पादन किया जाता रहा है।
वर्षों से कर रहे उपयोग
किसानों द्वारा परंपरागत एवं महत्वपूर्ण फसलों को वर्षों से उगाया जा रहा है। कृषकों को इसका व्यापक लाभ कैसे प्राप्त हो, इस दिशा में सार्थक प्रयास अब किए जा रहे है। आदिवासी बैल्ट में लंबे समय से उगाई जा रही पारंपरिक किस्में आज भी लाभदायक हैं, उनमें विभिन्न मौसम को सहने की अभूतपूर्व क्षमता है।
यह है महत्वपूर्ण पहलू
श्री अग्रवाल ने बताया कि वर्षों से आदिवासी इन फसलों का परंपरागत तौर पर उपयोग कर रहे है। इन फसलों की प्रमुख विशेषता यह है कि यह फसल शरीर के लिए अत्यंत फायदेमंद है। डिन्डौरी से विशेष प्रकार की मसूर का बीज मिला है। जिसमें पाला का कोई असर नहीं होता है। साथ ही यहीं से
कुटकी (मोटा अनाज)भी प्राप्त हुआ है। जिसे खेत में बोने पर उसमें कीटों का कोई प्रभाव नहीं होता है। इन फसलों को अब संरक्षित कर बढ़ावा दिया जाएगा। क्योंकि यह किसानों के साथ ही साथ सभी के लिए लाभप्रद है।
वर्षों से चली आ रही परंपरा
कृषि वैज्ञानिक श्री अग्रवाल ने बताया कि आदिवासियों के पास इन किस्मों का बीज वर्षेां से उनके पूर्वजों के द्वारा चला आ रहा है और आज भी वह उसी खाद्यन्न का उपयोग कर रहे है। जबकि अभी तक बहुतायत में यह फसल नहीं बोई जा रही है, लेकिन अब प्रयास होगा कि उसका उत्पादन बहुतायत में हो। ताकि सभी लोग उन फसलों को बतौर खाद्यन्न उपयोग कर सकें।