डोरीलाल की चिंता:- हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती है

उनकी केवल संख्या होती है। उनका नाम नहीं होता। वो संख्या में ही जीते हैं। वो संख्या में ही मरते हैं। वो संख्या में ही चलते हैं। उन पर कृपा भी होती है तो संख्या में ही होती है। उनको जेल भी होती है तो संख्या में ही होती है। वो दूर दूर से लाए जाते हैं। गांवों में जहां वो रहते हैं। उनके लिए ठेकेदार और ट्रक भेजे जाते हैं। वो ट्रक में अपनी अपनी गठरिया लिए खड़े रहते हैं। औरतें अपने बच्चों को लिए खड़ी रहती हैं। मंडला के गांव से लेबर आई है। कहा जाता है। 25 लेबर की एक गाड़ी और आ रही है। उनका कोई नाम नहीं होता। उनका कोई जेंडर नहीं होता। वो लेबर होते हैं। कभी कभी रास्ते में बोझ के कारण ट्रक पलट जाता है। या नाले में गिर जाता है। तब वो संख्या में मरते हैं। 25 में से 12 लेबर मर गये। बाकी का इलाज चल रहा है। ट्रक किसी काम का नहीं रहा। ट्रक को बहुत नुकसान हो गया। उनकी शवयात्रा नहीं होती। न कोई मातमी धुन बजती है। उनकी मिट्टी होती है। उनकी तेरहीं होती है। वो पहले भी जीने के लिए लड़ते थे। वो अब भी जीने के लिए लड़ते लड़ते मर जाते हैं। कवि इसे जिजीविषा कहते हैं। डोरीलाल इसे जीने की मजबूरी कहता है। कभी कभी उन्हें मरने का मुआवजा भी दिया जाता है। और क्या चाहिए ? वो इकठ्ठे चलते हैं। इकठ्ठे रहते हैं। किसी बनती हुई सड़क के किनारे रहे आते हैं, पन्नी लगाए झोपड़ों में। वो बनती हुई बिल्डिंग के अंदर रहे आते हैं पानी रेत गिट्टी और सीमेंट के बीच। उनके बच्चे खेलते रहते हैं इन्हीं रेत गिट्टी के बीच। वो सो लेते हैं इसी रेत सीमेंट गिट्टी के ऊपर। शाम को उठता है धुआं उनके चूल्हों से। जब सिकती हैं रोटियां। बेसुध सो जाते हैं सब दूसरे दिन के लिए। अभी जल्दी जल्दी काम निबटा लो फिर त्यौहार आने वाला है। सारी लेबर चली जाएगी। फिर कई दिनों तक नहीं आएगी। पता नहीं क्या करते हैं ये लोग। एक बार गए तो कई दिनों तक नहीं लौटते। कैसा त्यौहार मनाते हैं ? यहां रोज की मजदूरी मारी जाती है तो भी नहीं आते। इन लोगों का ऐसा ही है। दो पैसे जेब में आए नहीं कि काम से गायब। तभी तो मरते हैं भूखों। मगर इनके बिना काम भी नहीं चलता।
गांवों से कस्बों, कस्बों से छोटे शहरों और वहां से महानगरों तक Óये लोगÓ चलते रहते हैं। काम की तलाश में। दोनों वक्त पेट भरने की तलाश में। जहां जैसा काम मिलता है वहां वो काम करने लगते हैं। काम करते करते यदि कोई काम थोड़ा सीख जाते हैं तो ज्यादा काम के हो जाते हैं। वो कहीं कहीं ठहरने लगते हैं। किसी भी बस्ती में। वो जगह उनके गांव से सैकड़ों मील दूर हो सकती है। कभी कभी हजारों मील भी। कभी कभी देश बदल जाता है। भाषा बदल जाती है। वो नई भाषा सीख लेते हैं। नई जगह में रहना सीख लेते हैं।
सौ सालों में एक बार महामारी आती है। महामारी में वो घरों में बंद रहते हैं। वो जिसे अपना शहर और अपनी रोजी रोटी समझ बैठे थे समझ आता है कि न वो शहर अपना है और न वो शहर के लोग अपने हैं। उन्हें मालूम है मौत तो आना ही है। हर जगह जब मौत है तो चलो उस गांव में जहां पैदा हुए थे। और वो चल पड़ते हैं। वो एक दो नहीं, हजार दो हजार नहीं, लाखों में वो चल पड़ते हैं। झोलों और फटे एयर बैग सिर पर रखे। बच्चों को हाथ में उठाये। वो सड़क से चले। वो बसों से चले। वो रेल गाडय़िों से भागे। वो रेल की पांतों पांतों चले। चलते चलते थक कर चूर हो गए तो उसी रेल पांत पर सो गए और रेल गाड़ी से कुचल गए। उनका कुसूर था। रेल पातों पर क्यों सोये ? और तो और ससुरे रोटियां रखे थे। जो उनकी लाशों को पास से बरामद हुईं। वो साइकिलों से चले। वो पैदल चले। बिना जूते चप्पल के चले। बिना खाना और पानी के चले। चल पड़े क्योकि जिस शहर में वो रहते थे वहां उनका कोई नहीं था। ये भी इसी देश के वासी थे जिस देश में गंगा बहती है। वो दृश्य याद कर डोरीलाल आज भी रोता है।
इस पावन धरती पर कई लोग परलोक देखकर आए हैं। उन्होंने बताया है कि ÓइनÓ लोगों ने पिछले जन्मों में इतने पाप किए हैं कि ये इस जन्म में भूखे, नंगे, अनपढ और बेघर रहने के लिए शापित हैं। भूखे रहकर मेहनत करना इनकी नियति है। ऐसा करते करते जब ये मर जाएंगे अगले जन्म में ये श्रेष्ठि वर्ग में पैदा होंगे। श्रेष्ठि वर्ग इतने कष्ट से बनता है। पापियों का परलोक सुधारने के लिए इहलोक में इस वर्ष आर्यावर्त या जम्बूदीप या भारतवर्ष इत्यादि में तेरह हजार करोड़ रूपयों से भगवान के मंदिर बनाए गए हैं। विदेश से आए मेहमान सोने चांदी के बर्तनों में खाना खाएंगे। दे विल डिसकस हाउ टू इरेडिकेट पावरटी एंड हाउ टू जनरेट एम्पलाएमेंट एंड हाउ टू सेव अवर एनवायरन्मेंट एंड Óवन अर्थ वन फेमिलीÓ
डोरीलाल ज्यादा होशियार न बनो। तुम भी तो इसमें शामिल हो। ताली बजाने में। गाल बजाने में। देश का नाम रोशन हो रहा है। और तुम्हें गरीबों की सूझ रही है।
-डोरीलाल गरीबप्रेमी