
भोपाल/ जबलपुर। देश की राजनीतिक व्यवस्था हमेशा से बदलाव की पक्षधर रही है लेकिन पिछले एक दशक में इसकी तेज रफ्तार ने पूरे पॉलिटिकल सिस्टम को ही अपने शिकंजे में ले लिया है। एक जमाने में “लोक” का पूरा “तंत्र” जनता की भलाई के लिए काम करता था और ऐसा करते हुए इस बात का खास ध्यान रखा जाता था कि राजकाज की परतों के बीच मर्यादा बनी रहे, लेकिन सत्ता पर काबिज होने की हवस में न तो कही राजनीतिक शुचिता की “ज्योति” प्रज्ज्वलित होती नजर आती हैं और न ही विचारधारा का “दीपक”। पिछले एक दशक के दरम्यान जिस तेजी के साथ सियासत में पुराने दौर के राजनीतिक संतों द्वारा स्थापित मूल्यों का ह्रास हुआ है, उसने मध्यप्रदेश की पॉलिटिकल पिक्चर में भी ज्योतिरादित्य सिंधिया और दीपक जोशी पैदा कर दिए। 2018 में जनता ने भाजपा को दरकिनार कर कांग्रेस को सत्ता के मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया। 15 माह बाद ही जनता का यह फैसला राजनीतिक महत्वाकांक्षा की भेंट चढ़ा और कार्यकर्ताओं के परिश्रम से हासिल हुई सरकार सिंधिया समेत 22 विधायकों की बगावत पर कुर्बान हो गई। उस वक्त कांग्रेस की ज्योति ने ही अपने घर मे आग लगाई और अब साढ़े 4 साल बाद भाजपा को अपने ही कुनबे के दीपक की आंच से झुलसना पड़ रहा है।
मध्यप्रदेश की कांग्रेसी राजनीति में जिस तरह कांग्रेस के भीतर कभी माधराव सिंधिया का वर्चस्व था, वैसा आदर और स्थान भाजपा संगठन में पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी को हासिल था। माधवराव अपनी ईमानदारी के लिए पहचाने गए तो कैलाश जोशी ने जीवन पर्यन्त अपने सिद्धान्तों और उनसे जुड़ी मर्यादाओं का पालन कर राजनीतिक सन्त का दर्जा हासिल कर लिया था। बदलते वक्त के साथ इन नेता पुत्रों के बेटे पिता की विरासत को तो साथ लेकर चल रहे हैं लेकिन इस दौर में अब उनकी विचारधारा बदली हुई है। इन जैसे अनेक नेता बदली हुई आस्था के साथ नए जमाने के पॉलिटिकल सिस्टम का हिस्सा हो सकते हैं लेकिन जिन सवालों को वे अपने पीछे खड़े कर चुके हैं, उनका जवाब आखिर कौन देगा। जनता आखिर किस पर भरोसा करे। उसके पास सिवा तमाशा देखने के और है ही क्या। प्रजातन्त्र में वोट की ताकत सबसे बड़ी है, पर सही मायने में डेमोक्रेसी की भगवान बनी जनता के पास क्या यह ताकत बची है। खर्चीले होते जा रही चुनाव प्रक्रिया में वोट देकर लोग जिसे अपना प्रतिनिधि चुनकर विधानसभा या लोकसभा भेजते हैं, क्या उनमें कोई नैतिकता शेष है। प्रतिबद्धता केवल अपने स्वार्थों के लिए नही बल्कि जनता की अपेक्षाओं के साथ भी होना चाहिए। यह विचारणीय है कि एक दल को नकारकर जनता दूसरे दल के नेता पर अपना भरोसा जताते है लेकिन वही नेता अपने निजी एजेंडे को पूरा करने के लिए लोगों के वोट का ही नही बल्कि उनकी भावनाओं का भी सौदा कर लेता है। केवल दल ही नही अपितु अपनी राजनीतिक आस्था बदलते समय किसी के माथे पर शिकन भी नही आती। आखिर जनादेश के साथ यह खिलवाड़ कब तक होता रहेगा। जनता आज हर दल से यही सवाल कर रही है।
जैसे भाजपा सरकार के मंत्रिमंडल में दिख रहे कांग्रेसी चेहरे, क्या कांग्रेस सरकार में भी होंगे भगवाधारी मंत्री ?
चार माह बाद प्रदेश में विधानसभा के चुनाव होने हैं जिसकी बिसात बिछ चुकी है। मोहरे फिट करने का काम प्रदेश के परंपरागत प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस और भाजपा में शुरू हो चुका है। तमाम सर्वे रिपोर्ट बता रही हैं कि इस बार प्रदेश में बदलाव की बयार है। क्या कांग्रेस की वापसी की संभावना के मद्देनजर ही नेताओं के पाला बदलने का सिलसिला शुरू हो चुका है। क्या कांग्रेस की सरकार आने की स्थिति में कुछ ऐसे चेहरे भी मंत्रिमंडल में नजर आएंगे जो कल तक भगवा दल के साथ खड़े थे। मौजूदा सरकार में यही तो हुआ है। कांग्रेस की कमलनाथ सरकार में जिन चेहरों की कैबिनेट में ताजपोशी हुई उनमें से 10 से ज्यादा नेता शिवराज सिंह की सरकार में भी मंत्री पद हासिल करने में सफल हो गए और कुछ निगम- मंडलों की मलाई के हकदार हो गए। राजनीतिक सफलता का क्या यही शॉर्टकट है। किसी भी सूरत में, किसी भी कीमत पर सत्ता हासिल करो।
आज के दौर की यही है पॉलिटिकल पिक्चर
अगर आज के दौर की यही पॉलिटिकल पिक्चर है तो फिर जनता किस रूप में खुद को लोकतंत्र का भगवान समझे। विधानसभा चुनाव होने में अभी चार माह का वक्त है। इस बीच अभी बहुत कुछ होगा। दोनो दलों में बहुत सारे ऐसे नाम है जो पाला बदलने को आतुर हैं, बस उन्हें अपने सही वक्त का इंतज़ार है। देवास जिले से तीन बार के विधायक दीपक जोशी अपने पिता की तस्वीर लेकर कांग्रेस कार्यालय की दहलीज पर पहुंचे हैं। उन्होंने साफ तौर पर आरोप लगाया है कि भाजपा में जनसंघ के दीपक का प्रकाश धूमिल हो चुका है। सिंधिया भी जिस कांग्रेस ने उन्हें केंद्र में मंत्री और सांसद बनाकर रखा था, उसी कांग्रेस को कोसते हुए भाजपा में गए थे। नए दौर की इस राजनीति में कब कौन अपनी वल्दियत बदल लें कुछ नही कहा जा सकता।