साहब की समझाइस से बन गया काम -कांग्रेस की परंपरा रही है कि जो प्रत्याशी घोषित होता है वही चुनाव लड़ता है। पार्टी और संगठन सिर्फ टिकट मिलने तक के लिए रहते हैं। लेकिन इस बार जबलपुर की तीन से चार विधानसभा सीटों पर कांग्रेस की तरफ से कुछ अलग समीकरण देखने को मिल रहे हैं। जहां बगावत के सुर तो बहुत तेज थे लेकिन अब विरोध खत्म हो गया हैं। साथ ही साथ पार्टी के प्रत्याशी के लिए मैदान में खुलकर काम भी कर रहे हैं । इसके लिए ना तो दिल्ली से प्रयास हुए हैं ना भोपाल से प्रयास हुए हैं। इसके लिए जबलपुर के ही ऊंचे कोर्ट में खड़े होने वाले बड़े वकील साहब ने न जाने कौन सी घुट्टी पिला दी है कि भीतर घात के लिए जग जाहिर पार्टी एक साथ मैदान में है अब परिणाम में क्या होगा यह तो जनता ही बताएगी।
जो चेहरा हो पसंद-यह भी राजनीति का गजब खेल है। 5 साल किसी के नाम से सरकार चलाई। आने वाले 5 सालों में और किसी के नाम से सरकार चलेगी। अब जिसका नाम न पिछले 5 सालों में रहा है न आने वाले 5 सालों में रहेगा। उसके नाम पर चुनाव लड़ा जा रहा है। यह भी गजब खेल है काम किसी का चेहरा किसी का। भाजपा की यह राजनीति तो इस बार समझ से परे है। जनता भी कह रही है जिनके काम है उनके ही नाम रहे उनके ही चेहरे रहे तो बेहतर होगा। दूसरे के काम दूसरे के नाम और दूसरे के चेहरे पर अपना चेहरा चमकाने की नीति समझ के परे है।
प्लस कहीं माइंस ना हो जाए-शहर की एक विधानसभा सीट ऐसी है जहां प्रत्याशी के साथ टिकट के पूर्व दावेदारों को भी पार्टी ने महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां दी है। अब स्थिति ऐसी है की टिकट मांगने वाला नेता भी काम करना नहीं चाहता और चुनाव लड़ रहे नेताजी भी उनसे काम करवाना नहीं चाहते । लेकिन अब संगठन के आदेश की मजबूरी कुछ ऐसी है कि वह मन मार कर साथ में घूम रहे हैं और उन्हें न चाहते हुए भी साथ में घूमना पड़ रहा है। ऐसे में तो यही कहा जा सकता है कि जिन्हें पार्टी ने प्लस करने की जिम्मेदारी दी है वह प्रत्याशी के लिए माइंस न साबित हो जाए।
युवराज की बैठक क्या दिलाएगी राज-मध्य विधानसभा सीट में अब जाति का समीकरण जमकर चल रहा है। जिसका असर यह है कि कोई मंदिरों के सहारे उत्तर मांग रहा है तो कोई मंदिरों से निकलकर होटल की बैठक में समाज के युवा चेहरों को अपने पक्ष में बुला रहा है । विजयनगर की एक होटल में एक ऐसी ही बैठक हुई जहां समाज विशेष के युवा चेहरों को बुलाया गया और अपने पक्ष में काम करने की बात कही गई। दो खेमों में बट रही मध्य की राजनीति जाति केंद्रित होते दिख रही है। लेकिन जबलपुर की राजनीति में परिणाम कभी भी जाति केंद्रित नहीं रहे हैं।