औपचारिकता बन कर रह गई शांति समिति की बैठकैं

जबलपुर यश भारत। प्रायः हर विशेष पर्वों के दौरान पुलिस प्रशासन और जनप्रतिनिधियों की मौजूदगी में शांति समिति की बैठक आयोजित करने की परंपरा वर्षों से चली आ रही है लेकिन यदि जमीनी हकीकत देखी जाए तो आज के दौर में यह केवल औपचारिकता निभाने तक सीमित रह गई है। जितनी बातें जितनी चर्चाएं और जितने डिस्कशन बैठक में होते हैं वह जमीनी स्तर पर उतर ही नहीं पाते। बैठक में वही चेहरे नजर आते हैं जो बरसों से नजर आती रही है। विधायक सांसद स्तर के मौजूदा जनप्रतिनिधियों की उपस्थिती कभी-कभार ही देखने मिलती है जो आश्चर्य का विषय है। पुलिस विभाग के पास अभी जो नाम उपलब्ध है उन्हीं को बुलाकर औपचारिकता पूरी कर ली जाती है। त्योहारों को लेकर तरह-तरह के सुझाव और दिशा निर्देश जारी किए जाते हैं लेकिन इनका खुले आम उल्लंघन पर्वों के दौरान देखने मिलता है। 22 सितंबर से प्रारंभ होने वाले नवरात्र और दशहरा पर्व को लेकर एक बार फिर शांति समिति की बैठक आयोजित हुई और इसमें भी पूर्व की तरह उपस्थित जनप्रतिनिधियों ने अपने सुझाव दिए और प्रशासन ने निर्देश भी जारी करके औपचारिकता का निर्वाह कर लिया।वर्षों से यह अनुभव है कि इन बैठकों में केवल औपचारिक बातें होती हैं—
थोड़ी लाइटिंग, थोड़ी पुलिस व्यवस्था, थोड़ा मोड़ा-साफ़ सफ़ाई, और वही रूटीन निर्देश।
पर सवाल यह है—क्या इतने से ही त्योहार की वास्तविक चुनौतियाँ सुलझ जाती हैं?
नहीं। हर बार जनता वही समस्याएँ झेलती है—यातायात जाम, बिजली-पानी की कमी, अव्यवस्थित जुलूस, कचरे का ढेर, सुरक्षा की ढिलाई और अनगिनत परेशानियाँ।
बैठक में नेता और प्रशासन अक्सर एक-दूसरे की “हाँ में हाँ” मिलाकर आगे बढ़ जाते हैं। न तो जमीनी समस्याओं पर ठोस चर्चा होती है, न समाधान की गंभीरता दिखती है। यही कारण है कि आमजन हर बार कठिनाइयों से जूझता है।
त्योहार हमारी आस्था का है, व्यवस्था हमारी जिम्मेदारी की है। शांति समिति की बैठक केवल औपचारिक मंच न रहे, बल्कि समाधान का केंद्र बने।
समस्याओं को खुलकर और तथ्य के साथ रखा जाए।
स्थानीय स्तर पर ठोस जिम्मेदारियाँ तय हों।
हर समिति सदस्य और अधिकारी अपनी जवाबदेही माने।
जनता की भागीदारी बढ़े, ताकि व्यवस्था केवल कागजों में न रहे।
सच्ची भक्ति तभी है जब हम त्योहार को कठिनाई नहीं, बल्कि उत्सव और सौहार्द का प्रतीक बनाएँ जिम्मेदारी के साथ संवाद समन्वय से समाधान तक।







