देव आनंद की जन्म शताब्दी के बहाने जबलपुर की शून्यता/पंकज स्वामी
बीते दिनों फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन, नेशनल फिल्म आर्काइव और पीवीआर ने देश के कई शहरों में देव आनंद की कुछ फिल्मों का प्रदर्शन सिनेमा घरों में किया। ये फिल्में देव आनंद की जन्म शताब्दी वर्ष पर दिखाई जा रहीं हैं। देश के 30 शहरों के 55 सिनेमाघरों में ये फिल्में दिखाई गईं। इन शहरों में जबलपुर को शामिल नहीं किया गया। जबलपुर इन शहरों में शामिल क्यों शामिल नहीं हो पाया? यह सवाल उठना लाजिमी है।
जबलपुर क्या अब भी कस्बा है? दरअसल जबलपुर में जो भी मल्टीप्लेक्स हैं वे पीवीआर से संबद्ध नहीं हैं। जबलपुर सिनेमा व फिल्म आंदोलन का पुराना गढ़ रहा है। देव आनंद की फिल्मों ने यहां बॉक्स ऑफिस पर झंडे गाड़े हैं। गाइड, सीआईडी, ज्वेल थीफ़ और जॉनी मेरा नाम जबलपुर के सिनेमाघरों में सर्वाधिक कमाई करने वाली फिल्मों में से रही हैं।
जबलपुर का यूथ फिल्म फोरम देश की सबसे पुरानी फिल्म सोसायटी रही है। यूथ फिल्म सोसायटी के माध्यम से जबलपुर में छठे से आठवें दशक तक विश्व का सर्वश्रेष्ठ सिनेमा यहां के सिने प्रेमियों ने देखा। उस समय भोपाल व इंदौर के लोग जबलपुर से रश्क करते थे।
जबलपुर में जब स्मार्ट सिटी में शामिल हुआ तब उसके मूल उद्देश्य में पर्यटन के साथ कला व संस्कृति को प्राथमिकता के साथ रखा गया। स्मार्ट सिटी में हम इतने दायरे में सीमित रह गए कि बाहरी दुनिया तो क्या दिल्ली, मुंबई, पुणे से कट गए। एनएफडीसी, एनएफएआई, फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन से जबलपुर का कोई नाता नहीं रह गया और न ही ऐसे नाता जोड़ने वाले लोग या शख्सियत रह गए। जबलपुर में जब यूथ फिल्म फोरम के फेस्टिवल हुआ करते थे, तब शहर की टॉकीजों के दरवाजे सहर्षता के साथ खोल दिए जाते थे। नाममात्र के व्यय पर फिल्मों का प्रदर्शन होता था।
जबलपुर से धीरे धीरे राष्ट्रीय स्तर के आइकॉन (विभूतियां) गायब होते जा रहे हैं। हमारे पास कुछ शेष नहीं है। पांचवे से नौंवे दशक तक जबलपुर में शिक्षा, साहित्य, कला, सांस्कृतिक, खेल, फिल्म, राजनैतिक, प्रशासनिक, पुलिस, चिकित्सा, न्यायिक, सामाजिक, पत्रकारिता क्षेत्र में ऐसे आइकॉन थे, जिनकी राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा होती थी। जबलपुर के उदाहरण दिए जाते थे। वर्तमान में एक या दो आइकन ही बचे हैं। इनके बाद जबलपुर में एक बड़ा शून्य ही रहेगा।
हम खुश होते रहते हैं कि जबलपुर देश का बढ़ता शहर बनते जा रहा है। क्रांकीट के विशाल निर्माण को विकास के समकक्ष मान लिया गया है।
बहरहाल जब रुपहले परदे पर “लेके पहला पहला प्यार” गूंजा..जब “तेरे मेरे सपने अब एक रंग हैं” और “पिया तोसे नैना लागे रे” जैसे गाने गूंजे…अजीब सी सनसनी थी देश के 55 सिनेमा घरों में। पुरानी फिल्मों को नए जमाने में दोबारा देखने से शरीर में सुरसुरी दौड़ जाती है। देव आनंद को नए प्रिट में देखना, शानदार साउंड में उनके गीत को देखते हुए सुनने से लुफ्त का मज़ा मिलता है।
क्या इसमें हमारा कोई दोष है कि हम जबलपुर में रहते हैं। हम इन फिल्मों को देखने से वंचित रह गए