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■ रिश्ते निभाना कोई सीखे तो मुरारी से…

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खून के रिश्तों से परे जाकर जिंदगी में कुछ इंसानी रिश्तें ऐसे बनते हैं जिनका आधार स्नेह और समर्पण होता है। मेरे जीवन में प्रिय मुरारी का स्थान ऐसा था, जिसे शब्दों की सीमाओं में बांधना बहुत मुश्किल है। मुरारी नाम श्री कृष्ण का सूचक है। अपने इस नाम के अनुरूप जीवन पर्यंत उनका कर्म भी रहा। जिसको अपने अंतःकरण में बसा लिया, फिर उसी के होकर रह गए। सारे छल- कपट से दूर निर्मल मन का ऐसा व्यक्ति आजकल की दुनियां में खोज पाना बहुत कठिन कार्य है। वे मेरे जीवन का ऐसा हिस्सा थे, जो अपनों के बीच की दिनचर्या का अभिन्न अंग बन चुके थे। कोई दिन ऐसा नही बीता जब मुरारी को मेरी चिंता न हो। कभी सच्चे मित्र के रूप में सामने आया तो कभी भाई बनकर मेरी हर उलझन को अपना बना लिया। कभी पुत्र सा फर्ज निभाकर मेरी तमाम परेशानियों को आसान करने जुट गया। अनमोल था उसका साथ।

मुझे याद है पत्रकारिता की शुरुआत का वह दौर, जब खबर के लिए एसपी ऑफिस में मुरारी दुबे से मेरी पहचान हुई। कामकाज के सिलसिले में बहुत सारे कलमनवीस इस दफ्तर में आते- जाते थे, लेकिन बातों ही बातों में जैसे मुरारी ने मेरे अंदर के भावों को पढ़ लिया। मैं अपने पूज्य पिता स्व. अरुण शुक्ला की राह पर चलते हुए चुनौतीपूर्ण कार्य के लिए आगे बढ़ चुका था। शायद मुरारी ने मेरे इन्ही जज्बातों को पहचानकर खुदकी भावनाएं मुझसे जोड़ दी। उस दफ्तर में जब उन्होंने मुझे बैठने के लिए सम्मान से कुर्सी दी तब इस बात की खुशी हुई कि किसी ने तो मुझे एक पत्रकार के रूप में स्वीकार करते हुए स्नेह दिया। मुरारी की इस आत्मीयता ने उसे मेरे करीब ला दिया। दो इंसानों के बीच का यह रिश्ता पारिवारिक होकर समर्पण की जैसे नई इबारत लिख रहा था। मेरे हर सुख में मुरारी ने अपनी खुशी तलाशी तो मेरे हर दुख में उनके आंसू नही थमे। परिवार पर कोई संकट आया तो सबसे पहले साथ खड़े होने मुरारी ने कभी संकोच नही किया। एक ही इंसान में अक्सर मुझे हर रिश्ते का अहसास होता था। मैं अक्सर सोचता था कि खाकी वर्दी में समाज के प्रति अपना दायित्व निभाने वाला कोई व्यक्ति भी क्या इतना संवेदनशील इंसान हो सकता है ? इस दौर में पुलिस के प्रति आम जनमानस में जो नकारात्मक धारणाएं स्थापित हो चली हैं, सहायक उप निरीक्षक मुरारी दुबे उन सबके जवाब के रूप में याद किये जायेंगे। वे इस रूप में बहुत याद आएंगे की कोई पुलिसवाला भी अपनी जिंदगी किसी मित्र के नाम कर सकता है।

एक वाक्या मेरी स्मृतियों में है। जब यशभारत का प्रकाशन होने वाला था, तब सबसे पहले मुरारी ने अपनी मोटर साइकिल पर यह नाम अंकित करा लिया। हमने कहा भी कि अभी रजिस्ट्रेशन का पत्र नही आया है, लेकिन मुरारी एक पत्रकार से अखबार मालिक बन जाने के मेरे सपने से उपजी खुशी को भला कहां रोक सकता था। पूरे जबलपुर को उसने बताया कि आशीष शुक्ला का यशभारत निकलने जा रहा है। मेरा यशभारत निकलने जा रहा है। मुरारी के लिए केवल हमारा परिवार ही उसका अपना नही था बल्कि मेरे हर दोस्त को उसने दिल से अपना मान लिया। अखंड भरोसे के साथ मेरे वास्तविक स्वभाव को उसने उन लोगों तक पहुंचाया जिन्हें मेरी सोच का अंदाजा नही था। वो सबको कहता कि आशीष मेरे पितातुल्य हैं। रक्षाबंधन की सुबह बेटी यशिका इशानी से अपनी कलाई पर राखी बंधवाने का जरूरी दायित्व वह कभी नही भूलता। मेरी तरह दूसरों के काम आने का जुनून उसमें भी था। ऐसा कोई दिन नही जब दूसरों का कोई काम लेकर मेरे पास न आया हो। प्रेम में डूबे उसके शब्द यही होते – इसका काम कर दो बॉस। कई बार झल्लाहट भी होती तो मुझे मेरा धरातल बता देता। अधिकार पूर्वक कहता कि जो कुछ आपके पास है वह सबकी दुआओं का नतीजा है। उसका कोई निजी स्वार्थ कभी नही रहा। बस यही कहा करता – बॉस आपसे लोगो को उम्मीद है। आप सबके हो….

कल्पना भी नही थी कि वह इतनी जल्दी साथ छोड़ देगा। सांस की डोर से उसका चाहे अब कोई वास्ता न हो पर मेरी सांस में वो याद बनकर हमेशा रहेगा। आंसुओं का सैलाब रुक नही रहा। अब आगे शब्द जवाब दे रहे हैं। उसकी बातें हमेशा परछाईं बनकर मेरा साथ निभाती रहेंगी।

एक बात जरूर कहना चाहूंगा। माया का वो बहुत प्रिय रहा। भाभी बोलकर माया से मां जैसा रिश्ता रखता था। एक समानता देखो…उसने अपनी मौत भी चुनी, तो अपनी मां जैसी…ब्रेन हेमरेज।

■ आशीष

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