यश भारत,संपादकीय-फिलिस्तीन को मान्यता में अमेरिका को संदेश
राजनयिक संबंध स्थापित करने की दिशा में रखा कदम

यश भारत,संपादकीय-फिलिस्तीन को मान्यता में अमेरिका को संदेश
यूरोपीय देशों ने फिलिस्तीन को देश के रूप में मान्यता देकर, राजनयिक संबंध स्थापित करने की दिशा में कदम रख ही दिया। इससे ‘यूरोपीय देशों की अमेरिकी हित संवर्धक विदेश नीति’ में बदलाव की सुगबुगाहट कहना अनुचित न होगा। यूरोपीय देशों का यह निर्णय गाजा में चल रहे मानवीय संकट और इजराइल-फिलिस्तीन संघर्ष के बीच जहां हजारों निर्दोष नागरिकों की मौतों के दौरान लिया गया है। मानवाधिकार की रक्षा को आधार बनाकर लिया गया है। जो अमेरिका के एकतरफा प्रभाव को कम करता है और बहुपक्षीयता को बढ़ावा देता है।
इस संदर्भ में पूर्व फ्रांसीसी प्रधानमंत्री डॉमिनिक डे विलेपिन ने कहा, ‘यह इजराइल और अमेरिका को संदेश है कि फिलिस्तीन की मान्यता के सिद्धांत को मिटाया नहीं जा सकता। कमोबेश अमेरिका हर देश की विदेश नीति एवं आंतरिक राजनैतिक स्थिति पर नजर रखता है तथा अमेरिका फर्सट के मूल मंत्र के आधार पर अपने हित संवर्धक कार्यों को साधता है। सितंबर 2025 में संयुक्त राष्ट्र महासभा (हृन्न) के दौरान एक महत्वपूर्ण घटना घटी, जब कई यूरोपीय देशों ने फिलिस्तीन को एक स्वतंत्र राज्य के रूप में मान्यता दे दी। फ्रांस, बेल्जियम, लक्जमबर्ग, माल्टा, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और पुर्तगाल जैसे देशों ने इस कदम की घोषणा की, जिससे फिलिस्तीन को मान्यता देने वाले देशों की संख्या 150 से अधिक हो गई। फिलिस्तीन को मान्यता देने का यह फैसला वैश्विक राजनीति में एक बड़ा बदलाव दर्शाता है। जहां अधिकांश एशियाई, अफ्रीकी और दक्षिण अमेरिकी देश पहले से ही फिलिस्तीन को मान्यता दे चुके हैं, वहीं पश्चिमी यूरोप और अमेरिका के सहयोगी अब इस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।
इजराइल-फिलिस्तीन संघर्ष की जड़े 20वीं शताब्दी की शुरुआत में हैं, जब 1947 में संयुक्त राष्ट्र ने फिलिस्तीन को दो भागों में विभाजित करने का प्रस्ताव पारित किया। एक भाग यहूदियों के लिए इजराइल और दूसरा अरबों के लिए फिलिस्तीन। लेकिन 1948 में इजराइल की स्थापना के बाद हुए युद्धों में इजराइल ने अधिकांश क्षेत्र पर कब्जा कर लिया, जिसे फिलिस्तीनी ‘नकबा (तबाही) कहते हैं। 1967 के छह दिवसीय युद्ध में इजराइल ने वेस्ट बैंक, गाजा पट्टी और पूर्वी यरुशलम पर कब्जा कर लिया, जो आज भी विवाद का केंद्र हैं। ओस्लो समझौते (1993) ने फिलिस्तीनी प्राधिकरण (Palestinian Authority) की स्थापना की और दो-राज्य समाधान की आशा जगाई, लेकिन यह कभी पूरा नहीं हुआ। हमास जैसे संगठनों की भूमिका ने स्थिति को और जटिल बना दिया। फिलिस्तीन को मान्यता देने की प्रक्रिया 1988 से शुरू हुई, जब यासिर अराफात ने फिलिस्तीन की स्वतंत्रता की घोषणा की। तब से 140 से अधिक देशों ने इसे मान्यता दी, लेकिन अमेरिका और अधिकांश यूरोपीय देशों ने इसे इजराइल के साथ वार्ता पर निर्भर रखा।
2024 में आयरलैंड, नॉर्वे और स्पेन जैसे देशों ने मान्यता दी, जिसने 2025 की लहर को जन्म दिया। यूरोपीय देशों के हालिया कदम इसी संघर्ष के समाधान की दिशा में देखा जा रहा है। संघर्ष में अमेरिका की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। अमेरिका ने इजराइल को सैन्य और आर्थिक सहायता प्रदान की है, और संयुक्त राष्ट्र में फिलिस्तीन से संबंधित प्रस्तावों पर वीटो का उपयोग किया है। लेकिन यूरोपीय संघ ने हमेशा दो-राज्य समाधान का समर्थन किया है, हालांकि सदस्य देशों में मतभेद रहे हैं। जर्मनी और इटली जैसे बड़े अर्थव्यवस्था वाले देश अभी भी मान्यता से दर हैं।
फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने कहा कि यह निर्णय फिलिस्तीनियों के साथ खड़े होने और हिंसा को त्यागने वाले लोगों का समर्थन है। फ्रांस और उसके सहयोगी इसे दो-राज्य समाधान को बढ़ावा देने का तरीका मानते हैं, लेकिन यह अमेरिका के प्रभाव को चुनौती देता है। ट्रंप प्रशासन के दौरान मध्य पूर्व नीति में बदलाव आया, लेकिन 2025 में यह कदम ट्रंप को चिढ़ाने जैसा लगता है। कुल मिलाकर विश्व राजनीति को प्रभावित करने वाली अमेरिकी हवलदारी को खत्म करने वाले इस कदम से भारतीय उपमहाद्वीप को ‘रिंग ऑफ फायर में घेरने के अमेरिकी प्रयास प्रभावित हो सकते हैं।







