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देवउठनी एकादशी मनाने के पीछे है वैज्ञानिक रहस्य

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यश भारत के लोकप्रिय कार्यक्रम जीवन ज्योतिष में आज प्रख्यात ज्योतिष आचार्य और पूर्व डीआईजी मनोहर वर्मा से यश भारत के संस्थापक आशीष शुक्ला ने देवउठनी ग्यारस को लेकर चर्चा की इस दौरान श्री वर्मा ने कहा कि एकादशी मनाने के पीछे अनेक वैज्ञानिक कारण छुपे हैं इस पर्व के साथ ही वैवाहिक आदि शुभ कार्यों का श्री गणेश होता है।

जीवन ज्योतिष कार्यक्रम के दौरान ज्योतिषाचार्य श्री वर्मा ने बताया कि कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को भगवान नारायण योग निद्रा से उठते हैं इसलिए इसको देव प्रबोधिनी एकादशी कहते हैं और आषाढ़ मास की एकादशी को भगवान नारायण सयन में जाते हैं आषाढ़ मास से लेकर कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को वह योग निद्रा से जागते हैं इनको चतुर मास कहते हैं। इन चार माह में जो प्रकृति का तेजस्वी तत्व है वह कमजोर होता है इसलिए इन चार माह को चतुर मास रखे गए हैं । ताकि इसमें सब तप करें और कोई भी पुण्य काम की शुरुआत ना करें । ऐसा शास्त्रोक्त विचार है ,क्योंकि इस दौरान हमारी पृथ्वी से हमें जो तेज तत्व मिलता है उसकी कमी हो जाती है। अगर हम इस दौरान कोई कार्य करेंगे तो हमें जो प्रभाव मिलने वाले हैं उन शुभ प्रभावों की कमी रहेगी। इसलिए इस चातुर्मास में कोई भी पुण्य कार्यों की शुरुआत नहीं की जाती और देवउठनी एकादशी के बाद से प्रकृति का तेजस्वी रूप जाग उठता है , चतुर मास के दौरान वर्षा अधिक होती है और कोई भी विशेष कार्य कर नहीं पाते। इसलिए लोग एक ही जगह पर रहते हैं।
पुण्य कार्य करने का समय है देवउठनी एकादशी
लोकप्रिय कार्यक्रम के दौरान श्री वर्मा ने बताया कि देवउठनी एकादशी को नारायण योग निद्रा से जाग जाते हैं और परंपरा अनुसार सभी शुभ कार्यों का श्री गणेश किया जाता है। इसके बाद सभी वैवाहिक और शुभ आयोजन होने लगते हैं । परंपरा के अनुसार हमारे जीवन का सबसे बड़ा कर्म है विवाह, ताकि हम विवाह बंधन में बंध सकें और आगे जीवन को संपादित करें । देव प्रबोधिनी एकादशी को जगत के पालनहार नारायण योग निद्रा से उठ जाते हैं , इस शुभ अवसर पर तुलसी विवाह भी होता है । इस दिन तुलसी का विवाह शालिग्राम भगवान से होता है यह विवाह कार्यों का श्री गणेश है।

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कार्यक्रम में श्री वर्मा ने बताया कि देव प्रबोधिनी एकादशी को तुलसी विवाह से संबंधित पौराणिक आख्यान है। तुलसी जालंधर की पत्नी थी, महादेव जब इंद्र पर क्रोधित हो जाते हैं तब महादेव के तीसरे नेत्र से इंद्र को भस्म करने के लिए आग का गोला निकलता है, महादेव की क्रोध अग्नि से बचना संभव नहीं था स्थिति को संभालते हुए इस दौरान गुरुदेव बृहस्पति आए और महादेव की स्तुति करने लगे। उन्होंने महादेव से प्रेम पूर्वक कहा कि इंद्र को क्षमा कर दें इसके बाद भोलेनाथ ने प्रसन्न होकर इंद्र को क्षमा कर दिया लेकिन भगवान महादेव के तीसरे नेत्र से निकली हुई अग्नि को समुद्र में फेंक दिया गया उस अग्नि के ताप से समुद्र में जालंधर का जन्म हो गया। इसलिए जालंधर को समुद्र का पुत्र कहते हैं और भगवान शिव का अंश होने के कारण भगवान शिव का पुत्र भी कहा जाता है। जिसके कारण जालंधर में भगवान शिव के समान ही शक्तियां थी ।लेकिन जालंधर महाकाल के क्रोध से उत्पन्न हुआ था इसलिए उसकी प्रवृत्ति असुर वाली थी । जालंधर असुर था और जब असुर में शक्ति आती है तो वह अपनी शक्ति का दुरुपयोग करता है। इसलिए जालंधर भी अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करने लगा। जालंधर से पीडि़त होकर सभी देव प्रभु के पास गए और गुहार लगाई लेकिन शुक्राचार्य समझ गए कि जालंधर के आतंक के कारण अब उसका बचना मुश्किल है जिसके बाद गुरु शुक्राचार्य ने यह उपाय निकाला की कोई पतिव्रता स्त्री से इसका विवाह हो जाए तो उसका जो पतिव्रत धर्म है उससे जालंधर की रक्षा होगी। कालनेमी की बेटी वृंदा से शुक्राचार्य ने जालंधर का विवाह कर दिया। वृंदा पतिव्रता थी और भगवान विष्णु की परम भक्त थी। जब वृंदा का विवाह जालंधर से हो गया तो जालंधर और बलशाली हो गया कि अब तो उसे कोई हरा ही नहीं सकता जब तक वृंदा का पति व्रत धर्म खंडित नहीं होगा जालंधर की मृत्यु नहीं हो सकती थी। इसके बाद देवता परेशान होकर भगवान विष्णु की शरण में पहुंचे।

भगवान विष्णु ने धरा जालंधर का रूप
प्रख्यात ज्योतिष आचार्य श्री वर्मा ने बताया कि देवताओं के साथ जालंधर का युद्ध हुआ तभी भगवान नारायण जालंधर का रूप रख कर वृंदा के समक्ष प्रस्तुत हुए इसके बाद वृंदा ने जालंधर बने भगवान विष्णु को अपना पति मानकर उनके पास चली गई। जिससे वृंदा का पति व्रत धर्म खंडित हो गया जैसे ही पतिव्रत धर्म खंडित हुआ तभी महादेव शिव शंकर ने जालंधर का वध कर दिया।

वृंदा को आया क्रोध
वृंदा के साथ छल करने पर भगवान विष्णु को वृंदा ने श्राप दिया कि जैसे मैं अपने पति से अलग हो गई हूं ऐसे वह भी अपनी पत्नी से अलग होकर पत्थर बन जाएंगे ।भगवान विष्णु ने यह श्राप स्वीकार कर लिया और भगवान विष्णु वहीं पर पत्थर हो गए और वृंदा ने है वहीं पर अग्नि समाधि ले ली। इस दौरान प्रभु नारायण ने वृंदा से कहा कि वह उन पर बहुत प्रसन्न है वृंदा का पति व्रत धर्म से प्रभावित होकर, जिस कारण अगले जन्म में वह वृंदा का वरण करेंगे और उनकी पूजा के साथ-साथ वृंदा का भी पूजन होगा। यह वरदान देकर भगवान वहीं पर पत्थर हो गए । वृंदा की अग्नि समाधि से इसी दौरान निकली राख से एक पौधा तैयार हुआ जिसको हम तुलसी कहते हैं। यह वही तुलसी है और भगवान जो पत्थर के रूप में वह शालिग्राम है जिस कारण देवउठनी ग्यारस को तुलसी विवाह शालिग्राम से होता है।
तुलसी विवाह से मिलता है कन्यादान का फल

यश भारत के संस्थापक आशीष शुक्ला को कार्यक्रम के दौरान ज्योतिष आचार्य श्री वर्मा ने बताया कि यदि किसी की कन्या नहीं है और वह कन्यादान नहीं कर सकता है तो देवउठनी ग्यारस को तुलसी विवाह में कन्यादान करने पर कन्यादान का ही फल प्राप्त होता है। इस दौरान गन्ने का मंडप सजाया जाता है और चुनरी तुलसी माता को चढ़ाई जाती है रोली सिंदूर से मंडप आच्छादित किया जाता है और शालिग्राम भगवान को दूल्हे के रूप में सजाया जाता है और तुलसी शालिग्राम की विधिवत शादी कर देते हैं। इसी के साथ ही आगामी 8 महीने के लिए हमारे वैवाहिक कार्यक्रमों का शुभारंभ हो जाता है। इस विवाह से पुण्य ही नहीं बल्कि हमें यह कार्यों के श्री गणेश का तेज भी देता है। देवउठनी एकादशी का यह संदेश है कि 4 महीने के बाद भगवान नारायण के निद्रा त्यागने के साथ ही पूरे तेज और बल के साथ सभी अपने कार्यों में जुट जाइए इसी तरह से देवउठनी ग्यारस मनाया जाता है और यही इसकी वैज्ञानिकता है।

 

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