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आदि शंकराचार्य जी भारत की एकता के दिव्य सूत्र, हिंदू संस्कृति को बनाया सक्षम

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अहम् ब्रह्मास्मि का मंत्र देकर चार मठों की स्थापना कर, हिंदू संस्कृति को बनाया सक्षम

यश भारत जीवन ज्योतिष में आज युगपुरुष आदि शंकराचार्य भगवान के जीवन के महत्वपूर्ण पहलुओं को लेकर यश भारत के संस्थापक आशीष शुक्ला ने पूर्व आईपीएस अधिकारी प्रख्यात ज्योतिषाचार्य मनोहर वर्मा जी से चर्चा की।

प्रख्यात ज्योतिषाचार्य श्री वर्मा ने बताया कि 778 से 820 ई तक का समय आदि शंकराचार्य जी का माना जाता है । उन्होंने इस दौरान हिंदू धर्म का व्यापक प्रचार किया केरल जो उस समय मालाबार माना जाता था वहां शिव गुरु जी और उनकी पत्नी आर्य मां नि: संतान थे और महादेव के भक्त थे प्रभु महादेव की आराधना के फल स्वरुप उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम शंकर रखा गया। जो शंकर जी के अवतार भी माने जाते हैं ,यही शंकराचार्य भगवान माने जाते हैं। जिन्हें 3 वर्ष की आयु में सभी वेद पुराणों का ज्ञान हो गया लेकिन इन तीन वर्ष के बाद ही उनके पिता शंभू गुरु का निधन हो गया बालक शंकर कुशाग्र बुद्धि के थे और आसपास के सभी ऋषियों से शास्त्रार्थ किया करते थे और उनके कठिन सवालों के सहज जवाब दे दिया करते थे। बालक शंकर को शुरू से ही सन्यास ग्रहण करने की इच्छा थी उनकी इस इच्छा से माता सहमत नहीं थी ।

बालक शंकर ने की दिव्य लीला
एक बार बालक शंकर के पास अगस्त ऋ षि आए ऋ षि अगस्त से शंकर की माता ने कहा की बालक शंकर को दीर्घायु होने का आशीर्वाद प्रदान किया जाए लेकिन उन्होंने मना कर दिया। उन्होंने कहा कि बालक की आयु केवल 32 वर्ष ही है इस बात को सुनकर बालक शंकर की माता अत्यंत दुखित हुईद्य इसके बाद बालक शंकर ने केरल की पूर्णा नदी में जाकर बालक शंकर ने ऐसी लीला रची की एक मगरमच्छ ने उनका पैर पकड़ लिया और बालक शंकर चिल्लाने लगे। माता ने सोचा अपने पुत्र को कैसे बचाया जाए तभी बालक शंकर ने कहा माता आप सन्यास ग्रहण करने की अनुमति दे दें तो मैं छूट जाऊंगा ,इसके बाद बालक शंकर की माता ने उन्हें संन्यास की अनुमति दे दी।

8 वर्ष की आयु में ग्रहण किया संन्यास
बालक शंकर ने 8 वर्ष की आयु में सन्यास ग्रहण किया संन्यास लेने के बाद बालक शंकर भ्रमण करते हुए ओंकारेश्वर पहुंचे। यहां मां नर्मदा के तट पर स्वयं सिद्ध ज्योतिर्लिंग ओंकारेश्वर में उनके गुरु गोविंद पाद तपस्या करते थे । बालक शंकर उनके पास गए। गुरु के परिचय पूछने पर बालक शंकर ने कहा मैं पांच तत्व नहीं हूं और ना ही मैं कोई इंद्रिय हूं। बल्कि मैं एक सूक्ष्म तत्व हूं यह सुनकर उनके गुरु बहुत प्रसन्न हुए और बालक शंकर को उन्होंने अपना शिष्य बना लियाद्य शिष्य बनने के बाद बालक शंकर ने 3 वर्ष तक अद्वैतवाद की शिक्षा ग्रहण की। और भारत को एक सूत्र में पिरोया।

जब महादेव ने चंडाल का रूप रखकर बालक शंकर की ली परीक्षा

अद्वैतवाद दर्शन का वह भाग है जिसमें शंकराचार्य जी कहते हैं सभी चराचर जगत ब्रह्म हैद्य सभी एक है।
तत्वमसि मैं ब्रह्म हूं, अहम् ब्रह्मास्मि है, जिसका उन्होंने तीन वर्ष तक अध्ययन कियाद्य और अद्वैतवाद का प्रचार करने के लिए निकल गए यहां से वह काशी पहुंचे जहां प्रकांड विद्वान पहले से थे जहां वह सभी से शास्त्रार्थ किया करते थे और कोई उनके तर्क का जवाब नहीं दे पाता था काशी में ही भगवान शंकर ने रूप बदलकर बालक शंकर की परीक्षा ली ,जब काशी में बालक शंकर मंदिर की ओर जा रहे थे जहां से एक चांडाल शंकर के रास्ते में आकर खड़ा हो गया इनके साथ के लोगों ने चांडाल को हटाने की कोशिश की लेकिन चांडाल ने कहा ठहरो किसे हटाने कह रहे हैं। चांडाल ने कहा कि आप मुझे हटाने के लिए बोल रहे हैं या मेरे अंदर मौजूद ब्रह्म को हटने के लिए बोल रहे हैं। वास्तविक सच्चाई शंकराचार्य जी को पता चली की यही सत्य है, सभी ब्रह्म है इसके बाद शंकराचार्य जी ने चांडाल को प्रणाम किया और कहा कि आप मेरे गुरु हैं । आपने मुझे यह महत्वपूर्ण ज्ञान दिया।

पति का शव लेकर चीख रही थी महिला
इसी के साथ दूसरे वृत्तांत में एक सकरे रास्ते में महिला अपने पति का शव लेकर रो रही थी, यह अपने शिष्यों के साथ स्नान के लिए जा रहे थे। महिला ने कहा कि आप शव से ही क्यों नहीं कहते कि वह हट जाए ,इसके बाद शंकराचार्य जी वही समाधि लगाकर बैठ गए, क्योंकि इसमें भी ब्रह्म तत्व है । उन्होंने यह प्रतिपादित किया कि सब ब्रह्म है और सब ब्रह्म में ही विलीन हो जाते हैं, शंकराचार्य जी जिस दौर में शास्त्रार्थ कर रहे थे वह दौर हिंदू संस्कृति के लिए भ्रांतियों भरा था कुछ लोग वैष्णव तो कुछ शिव शक्ति सहित गणेश जी को मानने वाले अनेक संप्रदाय के अनुयाई थे और सब आपस में झगड़ते थे। शंकराचार्य जी का अवतार ही इसलिए हुआ था कि सभी संप्रदायों को एक सूत्र में बांधकर हिंदू धर्म को पुन: सक्षम किया जाएद्य और सभी को एकता के सूत्र में बांधा जाए।

चार मठों की हुई स्थापना
इसके बाद शंकराचार्य जी बद्रीनाथ गए ,वहां ज्योर्तिमठ की स्थापना की ,वहां से श्रृंगेरी दक्षिण आए और श्रृंगेरी मठ की स्थापना की, यहां से वह पश्चिम की ओर गए और वहां द्वारका शारदा पीठ की स्थापना की ,इसके बाद वह पुरी आए जहां पर उन्होंने गोवर्धन पीठ की स्थापना की। इन चारों मठ की स्थापना के साथ आदि शंकराचार्य जी ने अपने चार शिष्यों को एक एक मठ का प्रभारी नियुक्त कियाद्य और पहली बार शंकराचार्यों की नियुक्ति हुई। जो परंपरा आज भी कायम है।

शंकराचार्य जी ज्ञान मार्ग के पथिक थे
आदि शंकराचार्य जी ज्ञान मार्ग के पथिक थे। एक प्रसंग के दौरान बिहार में मुंडन मिश्र हुआ करते थे जो वैदिक दर्शन के थे और कर्म को विशेष मानते थे जबकि शंकराचार्य जी ज्ञान को प्रमुखता देते थेद्य
शंकराचार्य जी का माहिष्मती में मुंडन मिश्रा जी के साथ शास्त्रार्थ हुआ, इस दौरान दोनों में इस बात को लेकर सहमति बनी की जो भी शास्त्रार्थ में हारेगा ,वह दूसरे का शिष्य बन जाएगा। मिश्रा जी की पत्नी भी अत्यंत विद्वान थी, जिनको जज नियुक्त किया गया। शास्त्रार्थ के दौरान मुंडन मिश्र आदि शंकराचार्य जी से हार गए। इसके बाद उनकी पत्नी से शंकराचार्य जी का शास्त्रार्थ हुआद्य और मुंडन मिश्र की पत्नी ने शंकराचार्य जी से कामसूत्र को लेकर प्रश्न करना शुरू किया जबकि शंकराचार्य जी ब्रह्मचारी थे जिन्हें कामसूत्र के बारे में कुछ भी पता नहीं था इसके बाद शास्त्र के दौरान शंकराचार्य जी ने मिश्रा जी की पत्नी से 30 दिन का समय मांगा ।
आत्म स्वरूप से राजा के शरीर में किया प्रवेश
इसके बाद शंकराचार्य जी वहां से निकलकर एक गुफा में गए और और शरीर से अपनी आत्मा को निकाल कर एक मृत राजा के शरीर में प्रवेश करा दिया इसके बाद राजा जीवित हो गया, इसके बाद शंकराचार्य जी राजा के शरीर में प्रवेश कर एक महीने तक राजसी सुख में जीवन व्यतीत किया और कामसूत्र के बारे में संपूर्ण ज्ञान अर्जित कियाद्य और फिर मुंडन मिश्र की पत्नी से शास्त्रार्थ किया और उन्हें भी पराजित किया। इसके बाद दोनों ही उनके शिष्य बन गए। 32 वर्ष की आयु तक आदि शंकराचार्य भगवान ने अद्वैतवाद का प्रचार प्रसार किया, और सनातन धर्म को एक किया।
बौद्ध धर्म का भी प्रभाव हुआ कम

उस दौरान बौद्ध धर्म अपने प्रभाव पर था इसके बाद आदि शंकराचार्य जी ने बौद्ध धर्म से संबंधित कैमियों को बनाकर हिंदू संस्कृति को सक्षम किया इसके बाद बौद्ध धर्म के प्रभाव में कमी देखी गई।

ज्ञान ही सर्वोत्तम
प्रख्यात ज्योतिषाचार्य श्री वर्मा जी ने चर्चा के दौरान कहा कि आदि शंकराचार्य जी के जीवन से हमें यह सीख मिलती है कि ज्ञान ही सर्वोत्तम है हमें हमारे जीवन में अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त करने की हमेशा कोशिश करनी चाहिएद्य जबकि ज्ञान अनंत हैद्य उन्होंने अपनी 32 वर्ष की आयु में हिंदू संस्कृति को हमेशा एकता का संदेश दिया। अपने अंतिम समय में वह केदारनाथ गए और वहां समाधि में विलीन हो गए।

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