जबलपुर के महापौर हिकमत और श़फा सिद्ध डा. एस. सी. बराट का अल्प कार्यकाल

जबलपुर नगर निगम महापौर के इतिहास में एक विशिष्ट उपलब्धि दर्ज है, जब एक महापौर जबलपुर विश्वविद्यालय के रेक्टर और फिर कुलपति बने। यह उपलब्धि वर्ष 1965 में उस समय दर्ज हुई जब डा. एस. सी. (सत्य चरण) बराट को जबलपुर नगर निगम का महापौर नामांकित किया गया। उस समय मध्यप्रदेश के किसी नगर निगम में पहली बार एक चिकित्सक महापौर के पद पर आसीन हुआ था। राजनीति के चाणक्य माने जाने वाले द्वारका प्रसाद मिश्र उस वक्त मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे। वे डा. बराट के अभिन्न मित्र थे। दोनों लगभग प्रतिदिन जबलपुर में होने पर पत्ते खेला करते थे।
वर्ष 1965 में कुछ ऐसी परिस्थिति निर्मित हुई और तत्कालीन जबलपुर की राजनीति में बंगला-बखरी को संतुलित करने के लिए एक अध्यादेश ला कर नगर निगम को भंग कर दिया गया था। जबलपुर में निर्विवाद छवि रखने वाले डा. एस. सी. बराट को महापौर के रूप में मनोनीत किया गया। वे ऐसे व्यक्ति थे जिनता सम्मान जबलपुर ही नहीं पूरे प्रदेश व देश में था। नगर के लोग उनका सम्मान करते थे और प्यार भी खूब किया करते थे। उनसे किसी को कोई खतरा नहीं था।
वे घृणाहीन व्यक्ति थे। डा. बराट का महापौर के रूप में कार्यकाल लगभग छह माह का रहा और बाद में उन्होंने स्वयं इस्तीफा दे दिया। उनका अल्प कार्यकाल आज भी लोग याद करते हैं। वंशीलाल पांडे के बाद डा. बराट जबलपुर विश्वविद्यालय के रेक्टर और बाद में विश्वविद्यालय के कुलपति भी बने।
डा. बराट चिकित्सा पेशा को नई ऊंचाईयां दी थीं। वे स्वतंत्रता सेनानियों, शिक्षकों व विद्यार्थियों से कोई फीस नहीं लेते थे। एक बार विद्यार्थियों के उग्र होने और सुपर मार्केट के शिलान्यास पत्थर को नुकसान होने पर डा. बराट ने नाराज हो कर कुछ दिन विद्यार्थियों का नि:शुल्क इलाज बंद कर दिया था, लेकिन कुछ दिन बाद वे नरम पड़ गए और अपनी परंपरा को बरकरार रखा। तीसरे पुल के पास जहां उनकी क्लीनिक थी, वहां बाहर से आने वाले मरीजों व उनके परिजन के लिए नि:शुल्क रहने की व्यवस्था की गई थी।
उनके विशाल बंगले का बड़ा सा बरामदा गांव देहात से आने वाले मरीजों के लिए महफ़ूज़ रहता था। वे वहीं बनाते, खाते-सोते और ठीक होकर ही घर लौटते थे। डा. बराट से इलाज करवाने वाले सिर्फ जबलपुर के लोग नहीं थे। होशंगाबाद, इटारसी, सागर सहित पूरे महाकोशल व बुंदेलखंड के लोग उनके पास अपने मर्ज को ले कर पहुंचते थे और ठीक हो कर खुशी-खुशी अपने घर जाते थे। डा. बराट के अभिन्न सहयोगियों में डा. नंदकिशोर रिछारिया, डा. चौबे व डा. श्रीवास्तव रहे हैं।
आपाधापी के इस दौर के डाक्टर और शायद मरीजों को भी मुआयना करने का डा. एस. सी. बराट का तरीका अजीब लग सकता है पर था बड़ा कारगर जो उनकी दवा के असर को दोगुना कर देता था। हीलिंग टच और मरीजों के साथ संवाद स्थापित करने में डा. बराट माहिर थे। अपनी कुर्सी के समक्ष आरामदेह बैंच पर मरीज को वे लगभग लिटा लिया करते थे और फिर आहिस्ता-आहिस्ता पेट दबाते हुए बातचीत का सिलसिला शुरू करते कुछ इस तरह के सवालों के साथ- ‘’हां तो क्या बाहर गांव गए थे ? पानी काय का पीते हो ? रात में पक्का खाना ज्यादा खाया है। बारात में गए थे।‘
’ मरीज अगर हां में जवाब देता तो कहते वहीं से ले आए हो बीमारी। कोई बात नहीं। ठीक हो जाओगे। दवा दे रहा हूं। समय से खा लेना पर कुछ खाने के बाद। और हां ठीक हो जाओ तो आकर बता देना। करीब दस पंद्रह मिनट के इस सत्र में मरीज अच्छा महसूस करता और जैसे ही उठकर चलने को होता, तो रोक के पूछते जूता कैसा पहनते हो ? हील डेढ़ इंच काफी है। चलने में आरामदायक होना चाहिए। डा. बराट बी-काम्पलेक्स के जबर्दस्त हिमायती थे।
वे कहते थे कि खाना खाते वक्त थाली में बी-काम्पलेक्स की गोली साथ में रखना चाहिए। खाना खाते-खाते साथ में बी-काम्पलेक्स खा लेना चाहिए। इसी प्रकार डा. बराट वाटरबरीज कम्पाउंड सीरप (Waterburys Compound) प्रत्येक मरीज को प्रिस्क्रिप्शन में लिखते थे। वैसे तो डा. बराट क्षय रोग विशेषज्ञ थे पर हर मर्ज़ की दवा जानते थे। हिकमत और श़फा दोनों ही उनको सिद्ध थी।
# पंकज स्वामी