जबलपुर लोकसभा सीटः दिनेश-आशीष की छवि निर्विवाद, मुकाबला पार्टियों के बीच
जबलपुर, यशभारत। लोकसभा चुनाव जबलपुर में भाजपा-कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला है। दोनों ही पार्टियों के प्रत्याशियों ने अपना-अपना नामांकन पूरे जोश और उत्साह के साथ भर दिया है। हालांकि ये बात अलग है कि भाजपा प्रत्याशी आशीष दुबे की नामांकन रैली में जहां सीएम, तीन कैबिनेट मंत्री सहित बुजुर्ग नेता शामिल थे तो वहीं दिनेश के नामांकन रथ में राज्यसभा सांसद विवेक तन्खा, नगर अध्यक्ष, और विधायक लखन घनघोरिया सहित अन्य नेता शामिल थे। दिनेश यादव के रथ में पहले प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष जीतू पटवारी को शामिल होना था और यह कुछ दिन पहले ही तय हो चुका था परंतु ऐन मौके पर जीतू पटवारी नहीं पहंुचे सिर्फ श्री तन्खा ही वरिष्ठ नेता के तौर पर रथ में सवार थे। प्रत्याशियों की छवि की बात करें तो दिनेश यादव और आशीष दुबे निर्विवाद है मतलब दोनों का जनता और कार्यकर्ताओं से सीधा जुड़ाव है। कहा जा सकता है कि प्रत्याशियों के बीच नहीं जबलपुर में दो पार्टियों के बीच मुकाबला है।
जिला अध्यक्ष, प्रदेश महामंत्री के वक्त से कार्यकर्ताओं से सीधा जुड़ाव
लोकसभा चुनाव के बाद मंडल, निगम और प्राधिकरण आदि में होने वाली नियुक्तियों के लालच में नेता और कार्यकर्ता उनको सौंपी गई जिम्मेदारी का निर्वहन करेंगे, इसमें संदेह नहीं है। नगर निगम में एल्डरमैन के 12 पद भी भरे जाने हैं। पार्टी प्रत्याशी श्री दुवे ग्रामीण जिला अध्यक्ष व अलावा प्रदेश मंत्री रहने के कारण कार्यकर्ताओं से सीधे जुड़े हैं। इन सबके कारण वे खुद को सुविधाजनक स्थिति में मानकर चाल रहे हैं। और फिर मोदी लहर भाजपा के हौसले को बुलंद करने में सहायक है।
1996 से लगातार जीत रही भाजपा
भाजपा खेमे के आत्मविधास का प्रमुख कारण 1996 से लगातार लोकसभा चुनाव जीतना भी है। 1991 में कांग्रेस के श्रषण पटेल बमुश्किल 67 22 से जीते थे किंतु उसके बाद से यह सीट भाजपा का अभेद्य दुर्ग बन गई। 2019 में तो उसकी जीत का अंतर 4 लाख से भी ज्यादा था। जबकि 2018 में कांग्रेस के चार विधायक जीते और लखन घनघोरिया और तरुण भनोट के रूप में दो कैबिनेट मंत्री भी रहे। लेकिन 2020 में कमलनाथ सरकार के गिरने के बाद कांग्रेस लगातार कमजोर होती गई।
विधानसभा चुनाव में लखन को छोड़ सब हारे
पिछले विधानसभा चुनाव के नतीजे इसका प्रमाण हैं। जिनमें पूर्व विधानसभा सीट से श्री घनघोरिया को छोड़कर बाकि सभी कांग्रेस उम्मीदवार लम्बे अंतर से हारे। यहाँ तक कि तरुण भनोट तक को पराजय देखने मिली। इन सत्र वजहों से कांग्रेस का तम्मीदवार चुनने उत्पाद नहीं था। लखन और तरुण के नाम भी हवा हवाई होकर रह गए। कमलनाथ की चर्चा चली जिसका उन्होंने खुद खंडन कर दिया। प्रदेश में कांग्रेस छोड़ने वालों की संख्या लगातार बढ़ने से निराशा का आलम है। छिंदवाड़ा तक इससे अछूता नहीं रहा। स्थानीय स्तर पर महापौर जगत बहादुर सिह अन्नू के भाजपा में आ जाने से भी पार्टी को जबरदस्त झटका लगा क्योंकि वे नगर कांग्रेस अध्यक्ष भी थे। ऐसे में दिनेश ने उम्मीदवारी के लिए आगे आकर हिम्मत दिखाई। उनकी उम्मीदवारी के साथ ही पार्टी का नगर अध्यक्ष पद सौरभ शर्मा को दे दिया गया। लेकिन दोनों निर्णयों में हुए विलंब से कांग्रेस प्रचार और रणनीति बनाने में पिछड़ चुकी है।
दिनेश यादव को मतदाताओं पर पूरा भरोसा
विधानसभा चुनाव में मिली हार के चलते कांग्रेस के सभी बड़े नेता पराजित योद्धाओं की सूची में हैं किंतु दिनेश को उन प्रतिबद्ध मतदाताओं पर भरोसा है जो हर स्थिति में कांग्रेस के साथ रहे। यद्यपि कांग्रेस के लिए मुकाबला बेहद कठिन है। भाजपा इस चुनाव में नरेंद्र मोदी के नाम के अलावा राम मन्दिर में हुई प्राण प्रतिष्ठा से उत्पन्न हिंदुत्व की लहर पर सवार है जबकि ये मुद्दा कांग्रेस के लिए दुखती रग बन गया है।
दिनेश की ताक संगठन अध्यक्ष का अनुभव
नगर निगम और संगठन अध्यक्ष का अनुभव दिनेश की ताकत है। आशीष की तरह से उनकी निजी छवि और सार्वजनिक व्यवहार निर्विषाद है। इस प्रकार दोनों प्रत्याशी साफ सुथरे हैं। ऐसे में अब टक्कर पार्टियों के बीच होगी। जिसमें ऊपरी तौर पर तो भाजपा भारी प्रतीत होती है। दिनेश 1991 की तरह हुये रुस्तम साबित हो सकेंगे या नाहीं में इस बात पर निर्भर होगा कि पार्टी उनके साथ किस हद तक खड़ी रहेगी क्योंकि कांग्रेस में प्रत्याशी को अपने बल बूते लड़ना होता है जबकि भाजपा में संगठन मोर्चा संभालता है। वैसे दिनेश और आशीष दोनों को राजनीति विरासत में मिली है। फर्क में है कि श्री यादव पार्षद रहने के साथ महापौर का मुकाबला हारने के कारण चुनाव लड़ने का अनुभव रखते हैं। वहीं श्री दुबे के लिए ये नया तजुर्बा है। वैसे उनके स्वर्गीय पिता पंडित अंबिकेश्वर दुवे भी विधानसभा और महापौर का चुनाव लड़े थे।