डोरीलाल की चिंता, दही बेचने वाले, दूध बेचने वाले
देश में दूध ही दूध बिक रहा था। परंपरा ही ऐसी बन गई थी कि सब कोई दूध ही बेचते थे। देश का कानून भी कहता था कि दूध हमारी परंपरा है दूध हमारी संस्कृति है। देश के लोग मानते भी थे कि हां दूध ही खरीदना चाहिए। दूध ही बिकना चाहिए। देश में दूध वालों का बहुमत था। परंतु विरोध हमेशा होता रहा है। कुछ लोग दूध के विरोधी थे। उनका भी एक पक्ष था। दूध और दही में लड़ाई सदा चली आई है। अच्छाई और बुराई में लड़ाई सदा चली आई है। अच्छाई सदा जीते ऐसा जरूरी नहीं है। बुराई की भी जीत होती है और प्रचंड जीत होती है। जब अच्छाई कमजोर पडे़गी तो बुराई तो जीतेगी ही न।
तो दूध वालों का एकछत्र शासन था। दही कोई खरीदता नहीं था। दही वालों ने विचार किया कि क्या किया जाए कि इसका उलट हो जाए। दही ही दही खरीदा जाए और दूध कोई न खरीदे। तो प्रचार करना शुरू किया गया कि दही खाना चाहिए। दही से मन और शरीर स्वस्थ होता है। दही कई तरह से खाया जा सकता है। दही को मीठा करके भी खा सकते हैं। दही इसलिए भी खाना चाहिए कि आखिर दूध भी तो पेट में जाकर दही ही बनता है तो फिर सीधे दही ही क्यों न खाया जाए। और फिर हम दही दूध से सस्ता दे रहे हैं। दही पाचक होता है। दही से हाजमा दुरूस्त होता है। आओ सभी लोग दही खाओ। पूरब में खाओ। पश्चिम में खाओ। उत्तर में खाओ। दक्षिण में खाओ। दही खाओ, दही खाओ, दही खाओ। दूध और दूध वालों का नाश हो।
पूरे देश में दही की दुकानें लगा दी गईं। दही को केन्द्र में रखकर तरह तरह के गीत बन गये। दही की महिमा में गीत गाये जाने लगे। दही देवी की मूर्ति बना दी गई। शहर शहर दही देवी की मूर्ति स्थापना के आयोजन होने लगे। दही की आरती लिख ली गई। फिर दही की महा आरती शुरू हो गई। दही की हांडी का चित्र लगाकर एक ध्वज बना लिया गया। दही का प्रसाद बांटा जाने लगा। दही का इतिहास खोज निकाला गया। दही देवी की मूर्ति जमीन से ऊगने लगी। अद्भुत दृश्य। दही का फव्वारा फूट निकला और दही देवी प्रकट हो गईं। चारों तरफ पंडाल लग गए। मंच बन गए। स्पीकर लग गए। महिलाएं ढ़ोलक लेकर बैठ गईं और दही देवी के प्राकट्य का महिमा गान करने लगीं। आशु कवि तुरंत मौके पर पंहुचे और गीत लिख लिख कर महिलाओं को देने लगे। छोटी छोटी पुस्तिकाएं छप गईं। वो गांव गांव बांटी जाने लगीं।
देवभाषा में दही का गुण गान करते हजारों श्लोक मिल गए। कई महर्षियों ने दही पर महाग्रंथ लिखे थे। जो पाताल में पड़े थे। वो भी मिल गए। तभी कुछ दही देवी के विशेषज्ञ और ज्ञाता सामने आए। उन्होंने दही देवी को हजारों साल पुराने शास्त्रों में खोज निकाला। उनके भाषण देश में विश्वविद्यालयों में होने लगे। विश्वविद्यालयों में दही देवी पीठ की स्थापना की जाने लगी। शोध पत्र लिखे जाने लगे। दूर दूर देशों से विद्वान आकर विद्वत सभा का आयोजन करने लगे। शोधार्थी बसों में बैठकर तीर्थाटन करते हुए दही देवी की महिमा का गान करने लगे। अनेक नदियों के बारे में पता चला कि प्राचीन काल में इनमें दही ही बहता था। सभी नर नारी दही से स्नान करते थे। दही का महात्म ऐसा है कि आज भी पंचामृत दही से ही बनता है।
दही के व्यापारी खुश थे। उनका दही हाथों हाथ बिकने लगा था। अब उन्हें और विस्तार करना था। इसके लिए उन्होंने दही की रथयात्रा का आयोजन किया। फिर दही की महायात्रा प्रारंभ की। विश्व दही संघ भी बन गया था। इस सबसे दूध की बिक्री पर सीधा असर पड़ रहा था। नारे लगने लगे कि दूध वाले दही के नहीं देश के विरोधी हैं। आखिर दूध वालों ने दही वालों का विरोध करना प्रारंभ किया। इससे दही वालों का माहौल और बन गया। दही वालों ने दूध वालों पर हमले प्रारंभ कर दिए। इससे माहौल हिंसक हो गया। दूध वाले समझे कि इससे दही वालों को जनता बुरा भला कहेगी। दूध वालों ने जनता को समझाया कि हजारों सालों से दूध और दही साथ साथ रहते आए हैं। दूध से ही दही बनता है। क्यों आपस में लड़ते हो। एक साथ रहो जैसे पानी और दूध रहते हैं। मगर दही वालों को अपनी विजय साफ दिख रही थी। उन्होंने दूध वालों से समझौता करने से साफ इन्कार कर दिया। महासंग्राम हुआ।
दूध वाले महासंग्राम में पराजित हुए। दही वाले विजयी हुए। तबसे देश दहीमय हो गया। दूध वाले अल्पमत में हो गए। दूध की बिक्री ही न हो। दूध वाले भी सैकड़ों वर्षों से दूध बेच रहे थे। वो आसानी से हार कैसे मानते। वो लोगों को लाख समझाते कि दही खट्टा होता है। दूध मीठा होता है। दूध अपनाओ। मगर जनता कहती – नहीं हम भूखे मर जाएंगे लेकिन दही ही खायेंगे चाहे खट्टा हो चाहे जहरीला हो। दही देवी की जय। दूध वालों की सेना के सिपाही ही नहीं सेनानायक तक भी रातों राते दही सेना में शामिल होने लगे। बिना लड़े ही दूध वाले हारने लगे।
दूध वालों को विद्वानों ने कहा कि व्यावहारिक बनो। जमाना दही का है। तुम भी दही बेचो। दूध वालों को लगा कि शायद यही सही रहेगा। तो वो भी दही बेचने की कोशिश करने लगे। वो भी दही देवी के मंदिर जाने लगे। बहुत कोशिश की गई कि जनता यह मान ले कि दूध वाले भी आखिर दही वाले ही हैं। मगर बिलकुल फर्क नहीं पड़ा। जनता ने कहा कि हम जानते हैं तुम दूध वाले हो। मगर तुम बेईमानी कर रहे हो। तुम हमें भरमाने के लिए दही वाले बन रहे हो । हमें दही खरीदना होगा तो हम दही वालों से ही खरीदेंगे तुमसे क्यों खरीदेंगे।
दूध वालों को समझाया गया कि दही तो लोग हमसे न खरीदेंगे। चलो ऐसा करें कि दही में पानी मिला दें। अपन मठा बेचें। काफी कोशिश की गई। जनता को समझाया गया कि हम दूध वाले नहीं हैं हम पतला दही और मठा बेचने लगे हैं। अब तो हमसे खरीद लो। मगर घड़े घड़े भर दही मठा रखा रह गया, नहीं बिका।
दूध वाले अभी भी नहीं समझ रहे कि दूध शाश्वत है। दूध असली है। दूध प्राकृतिक है। दूध में पानी मिल सकता है। दूध में शक्कर मिल सकती है। मगर दूध में दही नहीं मिल सकता। दूध को दही फाड़ देता है। अभी भी समय है। दूध वाले हो दूध ही बेचो।
डोरीलाल दूधप्रेमी