जबलपुरमध्य प्रदेश

डोरीलाल की चिन्ता

चंदे की होली, होली का चंदा

चंदा लेना कभी भी और किसी के लिए भी आसान काम नहीं रहा। चंदा लेने वाले को पहले से मान लेना होता है कि सामने वाला चंदा नहीं देगा। फिर वो मांगता है। विनम्र होकर, अपना पवित्र उद्देश्य बता कर। देने वाले पहले से 25 या 51 रू तैयार रखते हैं। लेने वाला सोचकर आया है कि इस बड़े आदमी से 1000 तो लेना ही है। ये चंदे होली के समय के होते हैं। दुर्गा के समय होते हैं। मुहल्ले के लड़के जमा होकर चंदे की रसीद लेकर निकल पड़ते हैं। इनके साथ बड़े भाई का आशीर्वाद होता है। जितना कम पड़ेगा हम करवा देंगे। तुम लोग काम करो। फिर पार्षद विधायक से ले लिया जाता है। पहले ऐसा नहीं था। होली का चंदा लेना बहुत कठिन होता था। एक तो होली की लागत बहुत कम होती थी। दूसरा होली कोई बहुत शरीफों का त्यौहार नहीं माना जाता था। एक आतंक सा रहता था कि हे भगवान होली आ रही है। होली पर झगड़ा न हो, रंग खेलने के बहाने बदला न लिया जाए ऐसा होता नहीं था। इसीलिए इसका चंदा भी धमकी के साथ ही वसूला जाता था। चंदा नहीं दिया तो क्या करेंगे ये बता दिया जाता था। होली में एक प्रमुख कार्य चोरी करना भी होता था। लकड़ी चुराई जाती थी। घरों के बाहर रखा सामान चुरा लिया जाता था। पेड़ काट लेते थे। होली बदला लेने का त्यौहार था। कई मर्दों के लिए घरों में घुसकर रिश्तेदार महिलाओं के साथ बदतमीजी करने वाले त्यौहार का नाम होली था।
अब होली एक दिन नहीं होती। वर्ष में कई बार होती है। नियम तो है कि पांच साल में एक बार हो पर अब समय बदल गया है। एक साल में पांच बार भी हो जाती है। जितने बार होली उतने बार चंदा। अब होली मंहगी भी बहुत हो गई है। बहुत पैसा खर्च होता है। रंग बहुत मंहगा हो गया है। अब होली रंग बिरंगी भी न रही। राजा चाहते हैं कि होली में केवल एक रंग हो। जिंदगी में भी केवल एक रंग हो। पूरे देश में एक ही होली हो। और वो केवल हम खेलें। एक देश एक होली। हम ही रंग डालें और हम पर ही रंग डाला जाए। इस खेल को बाकी खेलने वालों से मुक्त कर दिया जाए। इसके लिए खेल के नियम बदलने पड़ेंगे तो बदल दिए जाएं। बल्कि हमने तो बदल ही दिए हैं।

जितनी मंहगी होली उतना ज्यादा चंदा चाहिए। चंदा कोई मुहब्बत से क्यों देगा ? और फिर हमसे मुहब्बत करेगा कौन ? हमने कब किससे मुहब्बत की है जो हमसे कोई करे। तो चंदा तो हाथ मरोड़ कर ही लिया जाएगा। जब पड़ेगा डंडा तो निकलेगा चंदा। मगर एक दिक्कत। होली सब खेलते हैं चंदा सब लेते हैं। ये ठीक बात नहीं है। ये बात उजागर हो जाती है कि किसने किसको कितना चंदा दिया। ये होली के नियम के विपरीत है। ये पारदर्शिता नहीं है। पारदर्शिता का जमाना है। वो तो लाना होगी। तो नियम बना दिया गया कि होली का चंदा पारदर्शी होगा। कोई किसको कितना चंदा दे रहा है और कौन किससे कितना चंदा ले रहा है ये पता नहीं चलेगा। इसके लिए एक धृतराष्ट्र महोदय रहेंगे। वो अपनी खुली आंखों से ये लेन देन देखेंगे। ये पारदर्शिता होगी। ये हुई न बात। चंदा देने वालों को पूरी आजादी है कि वो चाहे जिसको चंदा दें। लेने वाले को पता नहीं चलेगा कि उसे किसने चंदा दिया।

खेल शुरू हो गया । बढ़िया होली चल रही है। बढ़िया चंदा चल रहा है। दिखाई ये दे रहा है कि बाकी खेलने वालों को दस रूपये मिल रहे हैं और राजा जी को नब्बे रूपये मिल रहे हैं। एक खिलाड़ी पर हरिश्चन्द्र की आत्मा आ गई। उनने कह दिया कि हम इस बेईमानी में शामिल नहीं होंगे। ये बिलकुल रोंठाई है। हम ये होली का चंदा नहीं लेंगे और बड़ी अदालत चले गये। अब वहां बड़े बड़े मुकदमे सुने जाते हैं। इनसे बड़े मुकदमों का नंबर नहीं आया है तो इसका कहां से आता। चार चार बड़े जज रिटायर हो गए। मगर अब जो बैठे हैं उन्होंने सुनवाई शुरू कर दी। और तो और फैसला भी कर दिया। इतना तो कर सकते थे कि फैसला कुछ महीने बाद सुना सकते थे। और फैसला भी ऐसा कि मामला ही पलट गया। बोले टोटली गैर कानूनी काम चल्लहा है। बिल्कुल बंद। और बड़े बैंक को कह दिया कि हमें तुरंत बताओ कि किसने कितना चंदा दिया और किसको दिया।

चंदा लेने वालों को और कोई दिक्कत नहीं है। एक दिक्कत है कि जब लिस्ट छपेगी तो पता चलेगा कि किसने किसको कितना चंदा दिया। चलो दिया मगर जो बात खुल जाएगी वो ये कि क्यों दिया ?

जैसा कि शास्त्रों में कहा गया है कि भय बिनु होत न प्रीति। हमने देखा है जब खूंखार कुत्ता भोंकता है, काटने को दौड़ता है तो शिकार घिघियाया हुआ सहमा हुआ उसे पुचकारता है। उसे हड्डी देता है। भैया ये खा और मेरे प्राण छोड़। तो मोहब्बत के मारे कोई किसी को चंदा देता नहीं। 101, 501, 1001 तक तो श्रद्धा में दे देगा मगर करोड़ों रूपये तो बिना डंडे के भय के बिना नहीं देगा। और फिर ऊंट की चोरी निहुंरे निहुंरे ? ऊंट चोरी करोगे तो चाहे जितना छुप जाओ ऊंट थोड़ी छुपेगा। तो संकट ये है कि इस होली में आपको जो हजारों करोड़ रूपये मिले वो आपको किसने दिए और क्यों दिए ? इस सवाल से राजा परेशान है। जज पीछे पड़े हैं। एक ही रास्ता बचा है। वो ये है कि खजांची कह दे कि अरे साहब इतना बड़ा हिसाब है। पूरे देश में बिखरा है कैसे मिलान करें। हम जुट गए हैं साहब। मगर क्या करें कहां कहां पड़ी हैं रसीदें, कोई रजिस्टर तो है नहीं साहब। कच्ची कापी में पेन्सिल से लिखा है। कहीं कहीं तो मिट सो गओ है। हमौरें तो रात भर परेसान रहे। सच्ची बता रहे छ महीना से कम न लगेंगे जा हिसाब बनाने में।

तब तक होली हो चुकी रहेगी।

अब भी आपको लोकतंत्र और उसके तमाम तंत्रों पर पूरा भरोसा है ? मदर ऑफ डेमोक्रेसी

Yash Bharat

Editor With मीडिया के क्षेत्र में करीब 5 साल का अनुभव प्राप्त है। Yash Bharat न्यूज पेपर से करियर की शुरुआत की, जहां 1 साल कंटेंट राइटिंग और पेज डिजाइनिंग पर काम किया। यहां बिजनेस, ऑटो, नेशनल और इंटरटेनमेंट की खबरों पर काम कर रहे हैं।

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