
जबलपुर/ कटनी, यशभारत। एमपी में दो चरणों की वोटिंग में घटे मतदान प्रतिशत ने क्या महाकौशल और विंध्य के विधायकों के माथे पर चिंता की लकीरें उभार दी हैं। कम मतदान का असर चुनाव के नतीजों पर पड़ा तो क्या पार्टी के भीतर इनके परफार्मेंस पर रेड लाइन खींची जा सकती है, ये सवाल भाजपा विधायकों को इसलिए डरा रहा है क्योंकि आलाकमान ने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि यह चुनाव विधायकों का राजनीतिक भविष्य तय करेगा। अमित शाह ने भी पार्टी फोरम में क्लियर मैसेज दिया है कि नतीजों के आधार पर विधायकों का रिपोर्ट कार्ड तैयार होगा। अब तक दो चरणों की जिन सीटों पर मतदान हुआ है उनमें 2019 के मतदान प्रतिशत की तुलना में 7 से 9 फीसद तक कम वोट पड़े हैं। इस गिरावट की वजह चाहे जो भी हो लेकिन अपने अपने क्षेत्रों में विधायकों पर दबाव बढ़ गया है।

भारतीय जनता पार्टी ने मोदी की गारंटी के आसरे लोकसभा चुनाव में इस बार 400 पार का नारा दिया है। चुनाव के एलान के साथ पार्टी के रणनीतिकार मानकर चल रहे थे खुदके बूते 370 सीट और एनडीए गठबंधन के साथ 400 सीटों का लक्ष्य तभी पूरा हो पायेगा जब बड़ी संख्या में लोग मतदान के लिए पोलिंग बूथों पर पहुंचे। पार्टी ने वोटों में इजाफे के लिए हर पोलिंग बूथ पर 370 वोट बढ़ाने की योजना तैयार की और कार्यकर्ताओं को काम पर लगा दिया। सूत्र बताते हैं कि विधानसभा चुनाव में एमपी में बड़ी जीत को देखते हुए पार्टी ने मैदानी स्तर पर पार्टी के वोट बढ़ाने का जिम्मा विधायकों के सुपुर्द किया। संगठन के साथ मिलकर अपने-अपने विधानसभा क्षेत्रों में विधायकों को कम से कम उतने वोट तो हासिल करने का दबाव तो है ही, जितने 6 माह पहले हुए विधानसभा चुनाव में उन्हें हासिल हुए। जाहिर है ऐसा तभी सम्भव हो सकता था जब लोकसभा चुनाव का वोटिंग प्रतिशत विधानसभा चुनाव के मतदान के आसपास होता, लेकिन लोकसभा के लिए दो चरणों की वोटिंग के आंकड़े न केवल पार्टी के रणनीतिकारों को परेशान कर रहे हैं बल्कि विधायकों की नींद भी उड़ा चुके हैं।
आंकड़ों पर गौर करें तो पहले चरण का चुनाव अधिकांशत: महाकौशल और विंध्य की सीटों पर केंद्रित रहा, जिसमें जबलपुर, बालाघाट, छिंदवाड़ा, मंडला, सीधी और शहडोल शामिल हैं जबकि दूसरे चरण में बुंदेलखंड और विंध्य की बाकी सीटों पर वोटिंग कराई गई। पहले चरण में मतदान का प्रतिशत 60 के आसपास रहा, जबकि 2019 के चुनाव में इन सीटों पर वोटिंग का प्रतिशत 67.65 था। यानी पिछली बार की तुलना में 7.48 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई। दूसरे चरण के आंकड़ों का अध्ययन करें तो 2019 के मुकाबले 9 फीसद कम वोट पड़े। जाहिर है दोनों चरणों में 7 से 9 फीसद वोटों की गिरावट का सीधा असर चुनाव के नतीजों पर पड़ेगा। 2019 में मोदी लहर के बावजूद जिन सीटों पर कम अंतर से भाजपा की जीत हुई थी, ऐसी सीटें इस बार फंस चुकी है।
जानकारी के मुताबिक पार्टी को चुनाव में मतदान को लेकर ऐसे हालातों की आशंका थी, लिहाजा विधायकों की जिम्मेदारी निर्धारित कर दी गई थी। विधानसभा और लोकसभा के वोटिंग प्रतिशत का तुलनात्मक अध्ययन कर वोटिंग प्रतिशत के अनुसार मिलने वाले वोटों का अनुमान लगाएं तो क्या विधायकों के लिए ये परिस्थितियां चिंता में डालने वाली हैं। विधानसभा चुनाव की अपेक्षा पार्टी को बेहद कम वोट लोकसभा में मिलते हैं तो क्या पार्टी स्तर पर यह मान लिया जाएगा कि विधायकों ने पूरी ईमानदारी से काम करने के बजाय रस्म अदायगी की। उन्हें न मोदी की गारंटी से कोई सरोकार था और न 400 पार के नारे से कोई वास्ता। सूत्रों का कहना है कि चुनाव में विधायकों की भूमिका को लेकर पार्टी अलग से रिपोर्ट तैयार कर रही है। यह रिपोर्ट कार्ड ही उनका भविष्य तय करेगा। एमपी में 163 सीटों के बहुमत के साथ सत्ता में बीजेपी काबिज है। 6 माह पहले ही जनता ने हर विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा के उम्मीदवारों को खासे अंतर से जिताकर भोपाल पहुंचाया, लेकिन बात जब दिल्ली पहुंचने वालों की आ रही है तो ऐसी उदासीनता की वजह क्या है। इस अग्निपरीक्षा में कौन विधायक पास हुआ, कौन फेल इसका आंकलन तो क्षेत्र दर क्षेत्र मिलने वाले वोटों से होगा किन्तु इतना तय है कि जिन विधानसभा क्षेत्रों से पार्टी पिछड़ी उन विधायकों जवाबदेही तय करते हुए बेहतर प्रदर्शन करने वालों को आगे बढ़ाया जाएगा।
कांग्रेस की भी नजर
इधर एमपी में कांग्रेस को भी उम्मीद लग रही है कि इस बार वह 4 से 6 सीटें जीत सकती है, लिहाजा कांग्रेस ने भी अपने विधायकों को प्रचार और जनसंपर्क में आगे कर दिया है। विधायकों को बड़ी जिम्मेदारी भी दी गई है। जिन सीटों पर पार्टी बेहतर प्रदर्शन करेगी, उन क्षेत्रों के विधायकों को पार्टी में बड़ी जगह मिलना तय है। पीसीसी की ओर से सभी क्षेत्रोंबमे कामकाज की मॉनिटरिंग की जा रही है। जो विधायक काम नही कर रहे उन पर भी नजर है।