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यशभारत प्राइम टाइम कार्यक्रम में द्वारका पीठ शंकराचार्य स्वामी सदानंद जी महाराजः सबका सम्मान, जाति व्यवस्था पर सवाल क्यों? – जाति के आधार पर तय होते हैं सांसद, विधायक प्रत्याशी

 

 

– द्वारका पीठ के शंकराचार्य परम श्रद्धेय स्वामी सदानंद जी महाराज ने यशभारत के प्राइम टाइम कार्यक्रम में यशभारत के संस्थापक आशीष शुक्ला के साथ हुई बातचीत में भारत की प्राचीन संस्कृति, धर्म पालन की व्यवस्थाओं और वर्तमान दौर में राजनीति के तौर-तरीकों पर अपनी बेबाक राय जाहिर की। ज्वलंत सवालों के जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि आजकल सिद्धियों के हवाले से लोग आंडम्बर और अंधविश्वास फैलाते हैं जिसका हमारी सनातन परंपरा में कोई स्थान नहीं। उन्होंने कहा सिद्धियों का उपयोग मानव और जगत के कल्याण के लिए होना चाहिए। यदि धनोपार्जन उद्देश्य बन जाए तो वे सिद्धियां बहुत ज्यादा दिनों तक नहीं टिकतींं। वे साफ कहते हैं कि हमें भगवान का उपयोग नहीं बल्कि उनकी आराधना करना चाहिए। एक सवाल के जवाब में स्वामी सदानंद जी ने कहा कि हमारे देश का राजा धार्मिक होना चाहिए। जब हमारा राजा धार्मिक होगा तो प्रजा भी धार्मिक होगी। लोकतंत्र में बहुमत के आधार पर राजा का निर्माण होता है। प्रजा मत देकर के राजा का निर्माण करती है। इस प्रणाली में योग्यता का आधार नहीं रह गया है। स्वामी जी ने चिंता जाहिर की कि अब भारतीय समाज में भाई-बहन का प्रेम संपत्ति के कारण होने लगा है जिससे घर-घर मतभेद पैदा हुए हैं। वे कहते हैं कि संविधान का पालन करना सबके लिए अनिवार्य होना चाहिए। बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के लिए अलग-अलग कानून नहीं होना चाहिए। उन्होनें दो टूक कहा कि जब धर्म के आधार पर पाकिस्तान का निर्माण हुआ तो उन धर्मावलंबियों को पाकिस्तान में ही रहना चाहिए था। ऐसा जब नहीं हो पाया और उन्हें भारत में रहना पड़ा तो फिर भारत का संविधान स्वीकार करना ही चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि जाति-पाति तोडऩे का नारा देने वाले लोग खुद जाति का पालन कर रहे हैं। जाति के आधार पर ही चुनाव में कैडिंडेट खड़े हो रहे हैं। झगड़ा कराना राजनैतिक नेताओं ने सिखाया है। उनसे हमें बचना चाहिए।

 

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आचार्य परंपरा के नियमानुसार बड़ा शिष्य ही उत्तराधिकारी होता

सवाल-जिस वक्त आपने गुरू पद प्राप्त किया, उस समय आप बड़े अंतरद्वंद से गुजर रहे थे। एकतरफ अपने गुरू स्वामी स्वरूपानंद जी सरस्वती के परम पद प्राप्त करने से उनका विछोह दूसरी ओर उनके सानिध्य में हुए ज्ञानार्जन के बाद गुरू पद प्राप्ति का सौभग्य। इस परिस्थिति को आपने किस रूप में स्वीकार किया। जवाब- उस समय की मानसिक परिस्थिति और धैर्य रखने की क्षमता गुरू से ही मिली। उनके द्वारा प्रदत्त ज्ञान ने हमें बल प्रदान किया। इसी शक्ति से हम उनके कैलाशगमन को सहन कर सके। ये गुरू का ही ज्ञान था कि संसार में जो भी आया है उसे जाना होता है, लेकिन हम लोग ये मानते हैं कि गुरू एक तत्व है और इस तत्व का आना-जाना नहीं होता। न उनका जन्म होता और न ही उनकी मृत्यु होती। यह ज्ञान भी हमें गुरू से ही मिला। उन्होंने सबकुछ सहन करने की शक्ति दी। शंकराचार्य 2500 साल पुरानी एक परंपरा है। इस परंपरा में द्विपीठाधीश्वर स्वामी स्वरूपानंद जी हमारे गुरू थे। 22 साल पहले उन्होंने हम दोनों गुरू भाईयों मुझे और अभिमुक्तेश्वरानंद जी को सन्यास दे दिया था। इसके अलावा उन्होंने किसी और शिष्य को सन्यास नहीं दिया, यह बात सभी गुरूभाई जानते थे। आचार्य परंपरा में यह नियम होता है कि जो बड़ा शिष्य होता है उसे ही उत्तराधिकार मिलता है। एक तरह से हमारे गुरू ने मन बना लिया था और चयन भी कर लिया था। कई अवसरों पर उन्होंने बहुत लोगों से कह भी दिया। यद्यपि उन्होंने इसे कभी सार्वजनिक नहीं किया था, लेकिन मीडिया वाले भी अच्छी तरह इस बात को समझ रहे थे। परंपरा के अनुसार श्रृंगेरी के जगतगुरू शंकराचार्य महाराज जी ने चयन के बाद सांकेतिक अभिषेक किया और फिर उनके शंकराचार्य विदुशेखर भारती जी महाराज ने द्वारिका आकर अभिषेक किया। सनातन धर्म में यह परंपरा हजारों वर्षों से चली आ रही है। गुरू की भक्ति ही शिष्य की शक्ति होती है।

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सनातन धर्म में योग्यता का प्रमाण बहुमत नहीं

सवाल- मेरा जन्म ऐसे परिवार में हुआ जहां पिता पत्रकार और मां समाज कल्याण अधिकारी थीं। इस नाते मैंने समाज को बहुत करीब से देखा। मन में जब गुरूदीक्षा लेने की इच्छा जागी तो मां ने सलाह दी कि शंकराचार्य जी से ही दीक्षा लूं। वर्तमान दौर में हम देखते है कि शंकराचार्य ही सनातन धर्म के प्रमुख है। लोकतांत्रिक प्रकिया में आपकी भूमिका बेहद महत्वपूर्ण हो गई है। आपका क्या सोचना है?
जवाब- शंकराचार्य का पद योग्यता का है। हमारे यहां बहुमत प्रमाण नहीं होता। हमारे यहां योग्यता, तपस्या, सदाचार, सृतियों और स्मृतियों का अध्ययन ही प्रमाण है। वेद, पुराण, उपनिषद का अध्ययन और गुरू की अनुकंपा ही सबसे बड़ा प्रमाण है। वर्णाश्रम की रक्षा करना शंकर परंपरा का एक महत्वपूर्ण संविधान और विधान है। इसका पालन हमारी चारों पीठ में अब तक होता आ रहा है। वर्णाश्रम की जो शास्त्रीय व्यवस्था है, उसका पालन करते हुए हम लोगों को धर्म का प्रचार करना होता है। आदिशंकराचार्य जी भगवान ने स्वयं चतुष्पीठ की स्थापना करके चारों वेदों की व्यवस्था की। चारों पीठों में एक-एक वेद का उन्होंने विधान किया। अद्वैत वेदांत सिद्धांत का प्रतिपादन करते हुए उन्होंने पंच देव उपासना का उपदेश दिया। जगतगुरू तो सार्वभौम होते हैं। गुरू दीक्षा के लिए जब आप किसी महात्मा के पास जाएंगे तो वह जिस सम्प्रदाय का होगा उसी सम्प्रदाय की वह दीक्षा प्रदान करेगा, लेकिन शंकराचार्य उसी की दीक्षा देते हैं दीक्षा लेने वाला जिस कुलदेवी या कुलदेवता का पूजन करता है। हम लोग उसी परंपरा का पालन करते हैं। कोई हनुमान जी, कोई श्रीराम, कोई नारायण, कोई कृष्ण की उपासना करता है किंतु अगर वह निष्काम है तो उसे भगवत कृपा प्राप्त होती है।

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अंडाबर और अंधविश्वास से सनातन परंपरा में स्थान नहीं

सवाल- धर्म और चमत्कार में क्या अंतर है और इनके बीच क्या कोई रिश्ता है?
जवाब- मंत्रों में शक्ति होती है, उन मंत्रों को जो सिद्ध कर लेते हैं, उनमें भी शक्ति आ जाती है। मानव समाज में आजकल सर्वत्र दुख व्याप्त है, हर मनुष्य दुख से निवृत्त होना चाहिता है। आपने अनुभव किया होगा कोराना जैसे बीमारी को हमने दूर भगाया, इसलिए क्योंकि कोरोना हमारा स्वभाव नहीं। रोग हमारा स्वरूप नहीं। हम निरोगी थे, रोग हमें स्वीकार नहीं। हमें साधना करना चाहिए, उपासना करना चाहिए। चमत्कार के पीछे जिन सिद्धियों को लेकर लोग आंडम्बर और अंधविश्वास फैलाते हैं उसके लिए हमारी सनातन परंपरा में कोई स्थान नहीं है। सिद्धियों का उपयोग मानव कल्याण और जगत के कल्याण के लिए होना चाहिए। यदि धनोपार्जन उद्देश्य बन जाए तो वे सिद्धियां बहुत ज्यादा दिनों तक नहीं रहतीं। हमें भगवान का उपयोग नहीं बल्कि उनकी आराधना करना चाहिए।

अयोग्य लोग यदि शासक बन जाएंगे तो न धर्म रहेगा और न राज्य

सवाल- धर्म और राजनीति का आपस में क्या संबंध है?
जवाब- राजनीति धर्म के अनुसार होती है। राम राज्य और राजाओं के राज को आप देखेंगे तो हमारे यहां नीति शब्द चलन में आया। नीति का अर्थ है नयन करना, अर्थात ले जाना। नेता धर्म के अनुसार समाज को सनमार्ग पर ले जाता है। नेता में नैतिकता होनी चाहिए। कहा गया है – रीति-नीति, परमारथ-स्वारथ। श्रीराम ने राज्य का संचालन धर्म के अनुसार रीति-नीति से किया। इसलिए उनके राज्य की प्रशंसा होती है। उनके राज्य में धर्म के अनुसार प्रजा चलती थी, कोई अपराध ही नहीं करता था तो दंड देने वाला भी कोई नहीं था। सन्यासियों के हाथ में दंड दिखलाई पड़ता था। प्रजा का शासन राजा करता है, राजा का शासन धर्म करता है, और धर्म का उपदेश धर्माचार्य देते हैं, हमारी यही परंपरा रही है। इसलिए यह माना गया है कि हमारे देश का राजा धार्मिक होना चाहिए। जब हमारा राजा धार्मिक होगा तो प्रजा भी धार्मिक होगी। वर्तमान स्थिति में बहुमत के आधार पर राजा का निर्माण होता है। प्रजा मत देकर के राजा का निर्माण करती है। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, मंत्री, सांसद, विधायक सभी चुनाव के माध्यम से चुने जाते हैं। इस प्रणाली में योग्यता का आधार नहीं रह गया है। योग्यता का कोई मापदंड नहीं है। जिसको प्रजा चुनकर भेज देती है वहीं राजा हो जाता है। व्यवहारिकता की बात करें तो एक छोटी नौकरी पाने के लिए भी अध्ययन करना होता है। परीक्षाएं देकर डिग्री प्राप्त करनी होती हैं तब जाकर के छोटी मोटी नौकरी मिलती है, लेकिन राजनीति में योग्यता का कोई पैमाना नहीं। वर्तमान राजनैतिक सिस्टम में जो योग्य नेता हैं उनका स्वागत है। दोष किसी का नहीं है। हमें समझना होगा कि जिसे चुना जा रहा है क्या वह इस पद के योग्य हैं, यह तो तय होना ही चाहिए। अयोग्य लोग यदि शासक बन जाएंगे तो न धर्म रहेगा और न राज्य रहेगा, और न ही नीति रहेगी। जब हमारा धर्म और हमारा गुरू अधर्म और अयोग्यता की ही प्रशंसा करने लगेगा तो फिर हमारी संस्कृति कहां जाएगी, उसकी रक्षा कौन करेगा? संस्कृति और संस्कारों पर चलते हुए देश की प्राचीनता को समझकर अपने शाश्वत सनातन धर्म के साथ वेद-वेदांग, कल्प, व्याकरण, छंद ज्योतिष, मूल सम्प्रदाय, आचार्य पद्धति, मूल धर्म शास्त्र इन सबकी परंपरा की रक्षा तब हो सकती है जब हमारे शासक योग्य हों। अपने बच्चे के पढ़ाई के लिए जब स्कूल खोजते हैं तब हम यही ध्यान रखते हैं कि शहर में अच्छा विद्यालय कौन है। अच्छा गुरूकुल कौन है। जब हम बच्चे की पढ़ाई के लिए अच्छा गुरू खोजते हैं तो देश का राजा कैसा होना चाहिए इसमें भी बहुत विवेक से फैसला करना चाहिए, क्योंकि राजा को देश चलाना होता है, संविधान का निर्माण करना होता है। आजकल के दौर में राजनीति शब्द बहुत अच्छा है, लेकिन आजकल राजनीति गाली हो गई है। क्योंकि राजनीतिज्ञ राजनीति का पालन नहीं कर रहे हैं। वे राजनीति शब्द का अर्थ ही नहीं जानते है कि राज्य को किस नीति के अनुसार संचालित करना है। जो जानते हैं उन पर हमारे ये शब्द लागू नहीं होंगे, लेकिन जो नहीं जानते और अयोग्य हैं उन पर तो आक्षेप होना तय है।

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नेता को हमेशा सदाचारी होना चाहिए

स्वामी सदानंद जी ने कहा कि राजनीतिज्ञों में कितना भी दोष हो किंतु लाखों लोग उनसे जुड़े होते हैं, उनसे काम करवाते हैं। अगर वह नेता जिससे लाखों लोगों का संबंध है, अगर वह धार्मिक होगा तो उससे संबंध रखने वाले लाखों लोगों में भी धार्मिकता प्रवेश करेगी। इसलिए हमारा नेता धार्मिक होना चाहिए। हमारी संतान अपने पिता को सदाचारी देखना चाहती है। इसी तरह से हमारे देश के लोग अपने नेता को सन्मार्ग पर चलने वाला धार्मिक और सदाचारी देखना चाहते हैं। धर्म के लक्षणों पर चर्चा की जाए तो मनु महाराज ने धर्म के 10 लक्षण बताएं हैं , भागवत कार्य ने धर्म के 30 लक्षण दिए हैं। अलग-अलग ऋषियों ने धर्म के अलग-अलग लक्षण किए हैं किंतु सबका सार यही है कि हमारी देह के प्रत्येक अंग से धर्म का पालन होना चाहिए। हमारा मन बुद्धि, चित, अंहकार धर्ममय होना चाहिए। हमारा आचार-विचार धर्म से संयुक्त होना चाहिए। मातृ, पितृ, आचार्य देवोभव: की भावना होना चाहिए।

सबको समान अधिकार प्राप्त होंगे तो शोषण बंद होगा

सवाल – समाज का तेजी से पतन हो रहा है। पहले भाई के जन्म लेने पर खुशी होती थी, पंरतु अब धारणा बदलकर यह हो गई है कि हमारी संपत्ति को बंटवाने वाला पैदा हो गया है। समाज में यह बदलाव फिर से कब आएगा, जब लोग सोचेंगे कि भाई-बहन संपत्ति के बंटवारे के लिए नहीं बल्कि प्रेम के लिए जन्म लेते हैं?

जवाब- जिस वस्तु को हम महत्व देते हैं, उसको हम सहेजकर अपने पास रखते हैं। हम धन, मकान, जमीन को महत्व दे दिया। भाई-बहन के प्रेम का संबंध पीछे हो गया। संपत्ति आगे हो गई है। इसका एक और कारण हमारी संवैधानिक व्यवस्था भी है। संविधान में हिन्दू बिल कोड लगाकर यह व्यवस्था बनाई गई है। उस व्यवस्था में पक्षपात हुआ है। उस व्यवस्था में विसंगतियां भी आईं। भाई-बहन का प्रेम संपत्ति के कारण होने लगा। भाई-बहन में इससे मतभेद पैदा हुए। संविधान का पालन करना सबके लिए अनिवार्य होना चाहिए। भारत में पैदा होने वाले लोग किसी भी धर्म, जाति या सम्प्रदाय के हों सबको संविधान का पालन एक सा करना चाहिए। बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के लिए अलग-अलग कानून नहीं होना चाहिए। संविधान में ये सबसे बड़ी कमी है। हमें जब समान अधिकार प्राप्त होंगे तो शोषण बंद होगा। हिन्दू कोडबिल के विरोध के कारण ही स्वामी करपात्री जी महाराज ने रामराज्य परिषद की स्थापना की। धर्म का आश्रय लेकर इस संस्था का उद्भव हुआ। वह पार्टी आज भी सुरक्षित है। हमारे गुरूजी भी इस संस्था के अध्यक्ष रहे हैं। हिंदुओं और सनातन धर्म के पक्ष को लेकर ही वे सारे लोग खड़े हुए थे। जब देश का विभाजन हुआ तो विभाजन का आधार धर्म ही था। धर्मपालन की आपकी व्यवस्थाएं और तरीके अलग है इसलिए हम आपके साथ नहीं रह सकते। अंग्रेजों की कूटनीति यहां काम कर गई। उन्होंने भावनाओं को भडक़ाया और हमारे देश का विभाजन करा दिया। पाकिस्तान का निर्माण हुआ। जब धर्म के आधार पर पाकिस्तान का निर्माण हुआ तो उन धर्मावलंबियों को पाकिस्तान में ही रहना चाहिए था। ऐसा जब नहीं हो पाया और हमको भारत में रहना पड़ा तो फिर भारत का संविधान हमें स्वीकार करना ही चाहिए। किसी भी धर्म का व्यक्ति हो उसे हमारी संवैधानिक व्यवस्था में आस्था होना चाहिए। राष्ट्र के प्रति निष्ठा के भाव होना चाहिए। लेकिन देखने में ऐसा नहीं आ रहा इसी वजह से तमाम तरह की विसंगतियां पैदा हो रहीं हैं। इसके लिए हम शासन व्यवस्था में ही दोष देखते हैं,इसमें संशोधन करने की आवश्यकता है। धर्म निरपेक्ष शब्द हमारी संविधान की अवधारणा से जुड़ा है, इसका वास्तविक अर्थ विद्धानों को समझना चाहिए। अर्थ को अगर आप देखेंगे तो इसमें अपेक्षा शब्द शामिल है। अपेक्षा का अर्थ होता है चाहना और जब निर उपसर्ग लग जाएगा तो इसका अर्थ हो जाएगा नहीं चाहना। धर्म के बिना कोई चल नहीं सकता। अपने कर्तव्य का पालन करना धर्म है। गरीबों की सेवा करना भी धर्म है। भोजन कराना भी धर्म है। धर्म बहुत व्यापक है। लेकिन जब हम धर्म के अर्थ को नहीं समझते हैं तो लोग यह मान बैठे कि धर्म की वजह से ही मतभेद पैदा होते हैं।

एक तरफ जाति व्यवस्था को खत्म करने बात, दूसरी और जाति के आधार पर तय हो रहे प्रत्याशी

स्वामी जी ने कहा कि लोग वर्णाश्रम को खत्म करने की बात करते हैं। जाति व्यवस्था को खत्म करने की बात कर रहे हैं, ये नहीं होना चाहिए। हमारा सनातन धर्म हिंदू वर्णाश्रम व्यवस्था पर ही टिका हुआ है। आखिर हिंदू जाएगा कहां। हिंदू जाति के बिना रह ही नहीं सकता। जाति हर जगह है। वृक्षों की जाति है, पत्थर की जाति है, पशुओं की जाति है। सर्वत्र जाति विद्यमान है। हमारे जीवन यापन और स्वधर्म पालन के उपाय हमारे ऋषियों ने बनाए है। गीता के उपदेश में भी श्रीकृष्ण ने इस सार को मानव समाज के सामने लाया है। जाति व्यवस्था को तो मुगल नष्ट नहीं कर पाए। 78 साल से हमारे देश के लोगों का शासन है, इसलिए ये नारे नहीं लगाया चाहिए। जाति-पाति तोडऩे का नारा देने वाले लोग खुद जाति का पालन कर रहे हैं। जाति के आधार पर ही चुनाव में कैडिंडेट खड़े हो रहे हैं। सांसद, विधायक और मंत्री जाति के आधार पर बन रहे हैं। कौन किस जाति का अधिक वोटर है, कितने मतदाता किस जाति के अधिक हैं उस हिसाब से प्रत्याशी तय किए जा रहे हैं तो फिर सवाल यही है कि जाति को बढ़ावा कौन दे रहा है। आप जाति के आधार पर आरक्षण दे रहे हैं और जाति को नष्ट करने की बात करते हैं। ये कैसी विसंगति है। ये पानी पीकर फूफा बोलने की उक्ति है जो संभव नहीं है। जाति-पाति धर्मपालन के लिए है, झगड़ा कराने के लिए नहीं। झगड़ा कराना राजनैतिक नेताओं ने सिखाया है। उनसे हमें बचना चाहिए। यशभारत के पूरे परिवार को भगवान द्वारकाधीश का आशीर्वाद मिले। सर्व भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया: । सबकी सुख शांति की कामना करते हैं। सनातन धर्म में सभी के धर्मपालन की स्वतंत्रता होनी चाहिए। सभी के भोजन व्यवस्था होनी चाहिए। सभी लोग राष्ट्र के प्रेमी बनें। देश की उन्नति की कामना करते रहें।

 

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