सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला: बैंक ऋण मामला आपराधिक नहीं, दीवानी प्रकृति का
उच्च न्यायालय का आदेश पलटा, वाणिज्यिक लेनदेन को आपराधिक रंग देना गलत: सुप्रीम कोर्ट

नई दिल्ली, 19 अप्रैल 2025: सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि बैंक ऋण से जुड़े विवादों को आपराधिक मामला नहीं माना जा सकता, बल्कि ये पूरी तरह से दीवानी प्रकृति के होते हैं। न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने एक कंपनी और दो आरोपियों के खिलाफ केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) द्वारा दर्ज की गई एफआईआर को खारिज करते हुए यह टिप्पणी की।
पीठ ने अपने फैसले में स्पष्ट रूप से कहा कि आपराधिक कार्यवाही को जारी रखने से अपीलकर्ताओं पर भारी अत्याचार और पूर्वाग्रह का सामना करना पड़ेगा, और ऐसा न करने से उनके साथ घोर अन्याय होगा। 16 अप्रैल को सुनाए गए इस फैसले में न्यायालय ने जोर देकर कहा कि यह मामला दो पक्षों के बीच का विशुद्ध रूप से वाणिज्यिक लेनदेन है।
कोर्ट ने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि बैंक ऑफ महाराष्ट्र का कोई भी अधिकारी अपीलकर्ताओं को गलत तरीके से लेटर ऑफ क्रेडिट जारी करने में शामिल नहीं पाया गया। प्रारंभिक जांच में भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम (पीसी अधिनियम) के तहत प्रावधान लागू किए गए थे, लेकिन आरोप पत्र दाखिल करने के समय बैंक प्रबंधक का नाम और पीसी अधिनियम के प्रावधान हटा दिए गए थे।
मामले के अपीलकर्ता सुरेश सी सिंघल, संगीता सिंघल और गुडलक सिंथेटिक्स प्राइवेट लिमिटेड थे। न्यायमूर्ति मसीह ने कहा कि यह पूरा विवाद अपीलकर्ताओं और बैंक ऑफ महाराष्ट्र के बीच हुए लेन-देन से उपजा है और इसे आपराधिक पहल या अपराध से संबंधित पहलू नहीं कहा जा सकता। उन्होंने यह भी बताया कि सीबीआई द्वारा अपीलकर्ताओं के खिलाफ आरोपपत्र दाखिल करने से पहले ही समझौते की कार्यवाही शुरू हो गई थी और उसे अंतिम रूप भी दे दिया गया था।
अपीलकर्ताओं ने गुजरात उच्च न्यायालय के मई 2017 के उस आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था, जिसमें उनकी सीबीआई की प्राथमिकी को रद्द करने की मांग वाली याचिका खारिज कर दी गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने उच्च न्यायालय के आदेश को पलटते हुए कहा कि ऐसे मामलों में जहां आरोप तय हो चुके हैं, लेकिन साक्ष्य अभी तक शुरू नहीं हुए हैं या प्रारंभिक अवस्था में हैं, उच्च न्यायालय परिस्थितियों और उपलब्ध सामग्री के प्रथम दृष्टया आकलन के बाद अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए प्राथमिकी को रद्द कर सकता है।
अपीलकर्ताओं ने न्यायालय के समक्ष तर्क दिया कि स्वीकृत मूल राशि 14.20 करोड़ रुपये थी और उन्होंने बैंक को कुल 19.67 करोड़ रुपये का भुगतान किया है, जो मूल राशि से 5.47 करोड़ रुपये अधिक है। उन्होंने कहा कि इस प्रकार बैंक को कोई वित्तीय नुकसान नहीं हुआ है और लेटर ऑफ क्रेडिट से संबंधित सभी देय भुगतान कर दिए गए हैं।
मामले के तथ्यों के अनुसार, 1998 से 2005 के बीच बैंक ऑफ महाराष्ट्र ने अपीलकर्ताओं की मजबूत वित्तीय स्थिति को देखते हुए उन्हें कई ऋण सुविधाएं प्रदान की थीं। हालांकि, 2004 की सूरत बाढ़ सहित प्रतिकूल बाजार स्थितियों के कारण अपीलकर्ता कंपनी को वित्तीय संकट का सामना करना पड़ा, जिसके चलते बैंक ने उनके ऋण को गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) के रूप में वर्गीकृत कर दिया था। बैंक ने ऋण वसूली न्यायाधिकरण, अहमदाबाद में ऋण वसूली के लिए आवेदन भी दायर किया था।
इन कार्यवाहियों के बीच, सीबीआई ने कथित विश्वसनीय सूचना के आधार पर अपीलकर्ताओं और बैंक के शाखा प्रबंधक के खिलाफ आईपीसी की विभिन्न धाराओं और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत दंडनीय अपराधों के लिए एफआईआर दर्ज की थी।
हालांकि, दिसंबर 2008 में बैंक ने अपीलकर्ताओं द्वारा प्रस्तुत एकमुश्त निपटान प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया था, और बाद में एक संशोधित समझौता प्रस्ताव पर दोनों पक्षों ने सहमति जताई, जिसे 12 अप्रैल, 2010 को अंतिम रूप दिया गया। अप्रैल 2011 में, अपीलकर्ताओं को बैंक द्वारा नो-ड्यूज प्रमाणपत्र भी जारी कर दिया गया था और उनके नाम CIBIL/RBI की डिफॉल्टर सूची से हटा दिए गए थे।
आश्चर्यजनक रूप से, सीबीआई ने मई 2010 में जो आरोप पत्र दायर किया, उसमें बैंक के शाखा प्रबंधक के खिलाफ कोई सबूत नहीं मिला, जिसके कारण उन्हें आरोपी के तौर पर हटा दिया गया।
अपीलकर्ताओं के वकील ने तर्क दिया कि इस मामले में बैंक, जो कि वास्तविक पीड़ित पक्ष है, ने स्वयं कोई शिकायत दर्ज नहीं कराई थी और न ही कोई आपराधिक कार्यवाही शुरू की थी। सीबीआई ने स्वतः संज्ञान लेते हुए एफआईआर दर्ज की थी।
वहीं, सीबीआई के वकील ने तर्क दिया कि केवल इसलिए कि आरोपी पक्ष और बैंक के बीच समझौता हो गया है, लंबित आपराधिक आरोपों को खारिज नहीं किया जा सकता है।
हालांकि, न्यायमूर्ति मसीह ने सीबीआई की प्राथमिकी को खारिज करते हुए कहा कि ऐसे मामलों में जहां कथित अपराध के तुरंत बाद या उसके तत्काल बाद समझौता हो गया हो और मामला अभी भी जांच के अधीन हो, वहां उच्च न्यायालय आपराधिक कार्यवाही/जांच को रद्द करने के लिए समझौते को स्वीकार करने में उदारता दिखा सकता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने अंततः कहा कि अपीलकर्ताओं द्वारा प्रस्तुत किए गए आंकड़ों से स्पष्ट है कि बैंक को कोई नुकसान नहीं हुआ है, बल्कि उन्हें समझौते के तहत मूल राशि से अधिक धन प्राप्त हुआ है। यह फैसला बैंक ऋण विवादों के मामलों में एक महत्वपूर्ण कानूनी मिसाल स्थापित कर सकता है।