नेता प्रतिपक्ष के बयान से अफसरशाही पर कसेगी लगाम ?

आशीष रैकवार
पत्रकार, यशभारत, कटनी
मध्यप्रदेश विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष उमंग सिंघार के कटनी प्रवास के दौरान दिए गए बयान ने नया विवाद खड़ा कर दिया है। उन्होंने मीडिया से बातचीत में अफसरशाही को लेकर साफ-साफ कह दिया कि जो अधिकारी भाजपा के इशारे पर काम कर रहे हैं, उन्हें आरआरएस की चड्डी पहन लेना चाहिए। उनके इस बयान के बाद बखेउ़ा खड़ा हो गया है। सत्तापक्ष के कुछ नेता इस बयान के बाद से हमलवर नजर आ रहे हंै। भाजपा के नेताओं ने नेता प्रतिपक्ष को आड़े हाथों लेते हुए उनको अपनी मानसिक स्थिति की जांच कराने के लिए कहा है।
वैसे राजनीति में नेताओं के मुख से इस तरह के बयान फूटना कोई नई बात नहीं है। इसके पहले भी पक्ष-विपक्ष के नेताओं द्वारा इस तरह या फिर यूं कहें कि इससे भी निम्न स्तर के बयान दिए जा चुके हैं। चुनाव में इस तरह के बयान जब-तब सामने आते रहे हैं। चुनावी सभाओं में एक-दूसरे के नेताओं पर उंगली उठाना और इस तरह की शब्दावली का प्रयोग अब चलन में आ चुका है लेकिन अभी न तो चुनाव का समय है और न ही कटनी में कोई आमसभा आयोजित थी फिर नेता प्रतिपक्ष द्वारा कही गई इन बातों के कई मतलब निकाले जा रहे हैं। इस बयान को शासकीय कर्मचारियों द्वारा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं में जाने को लेकर भी जोडक़र देखा जा रहा है। उन्होंने अपनी बातों से उन अधिकारी -कर्मचारी को भी निशाने पर लिया है, जो आरआरएस की शाखाओं में जाते हैं। नेता प्रतिपक्ष ने ऐसे ही अधिकारियों पर तंज कसते हुए प्रदेश की भाजपा सरकार पर भी सीधा हमला किया है।
नेता प्रतिपक्ष का यह बयान उस समय सामने आया है, जब पूरे प्रदेश में अफसरशाही हावी होती दिख रही है। अधिकारी मनमर्जी पर उतारू हैं। लोकतंत्र में जनता की भूमिका को महत्वपूर्ण माना गया है और तंत्र को इसके लिए जबावदेह बनाया गया है लेकिन तंत्र की मनमानी के चलते कहीं न कहीं जनता की आवाज दबती हुई नजर आ रही है। जनसुनवाई और लोक कल्याण शिविरों के माध्यम से जनता की शिकायतों के निराकरण की पहल जरूर की जा रही है, लेकिन हकीकत इससे कोसों दूर है। लोकतंत्र में जिस जनता को सर्वोपरि माना गया है, वो ही जनता इस तरह के शिविरों में सेवकों के सामने अपनी फरियाद लेकर खड़ी हुई नजर आती है और सेवक कुर्सी पर बैठे। अब देखना यह है कि नेता प्रतिपक्ष ने जो बातें कही है, उसका प्रदेश की राजनीति पर क्या असर होता है।
राजनीति में बयानबाजी की नई परम्परा
राजनीति में बयानबाजी ने अब एक परम्परा का रूप ले लिया है। चुनाव का माहौल हो या फिर अन्य अवसर, नेताओं द्वारा एक-दूसरे दलों के नेताओं पर इस तरह की टीका-टिप्पणी की जाती रही है। कई बार नेताओं के इन बयानों से बवाल भी हुआ है। निम्न स्तर के बयानों की आलोचना भी हुई है और सडक़ से लेकर सदन तक विरोध प्रदर्शन भी हुए हैं। कई नेता तो अपने बयानों को लेकर खासा सुर्खियों में रहते हैं और यह कोई पहला मौका नहीं है, जब इस तरह की शब्दावली का प्रयोग किया गया हो, बल्कि इसके पहले भी राष्ट्रीय और प्रदेश स्तर के नेताओं ने अपने भाषणों में इस तरह के शब्दों का प्रयोग किया है। कई बार तो सत्तापक्ष के नेताओं की भी जबान फिसल चुकी है।
सुप्रीम कोर्ट ने भी दी हिदायत
सुप्रीम कोर्ट ने भी सार्वजनिक पदों पर बैठे मंत्री, सांसद और विधायकों के गैरजिम्मेदार बयान को लेकर कुुछ समय पहले एक एक अहम फैसला दिया था। अपने फैसले में देश की शीर्ष अदालत ने कहा था कि सार्वजनिक पदों पर बैठे लोगों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर संविधान के अनुच्छेद 19(2) में दी गई शर्तों के अलावा अतिरिक्त प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता है। 5 सदस्यीय संविधान पीठ ने अपने फैसले में कहा था कि राजनीतिक पार्टियों को अपने सदस्यों के भाषण पर कंट्रोल करना चाहिए, क्योंकि हेट स्पीच संविधान के मूलभूत मूल्यों पर हमला करता है। हेट स्पीच संविधान के मूल जैसे स्वतंत्रता, समानता और भाइचारे के उद्देश्य पर हमला करता है।







