नजरिया : कब रुकेंगे चौथे स्तंभ पर हमले ?

आशीष सोनी
समूह संपादक, यशभारत
छत्तीसगढ़ के पत्रकार मुकेश चंद्राकर की नृशंस हत्या ने समूचे पत्रकार जगत को व्यथित और चिंतित कर दिया है। एसआईटी द्वारा मुख्य आरोपी सुरेश चंद्राकर को हैदराबाद से गिरफ्तार अवश्य कर लिया गया है, लेकिन उन सवालों के जवाब कौन देगा जो लोकतंत्र के चतुर्थ स्तंभ पर हो रहे हमलों से जुड़े हैं। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के कार्यों की सतत निगरानी के साथ सरकार को सचेत करने में प्रभावी और पारदर्शी भूमिका की वजह से मीडिया को फोर्थ पिलर के रूप में मान्यता मिली। समाज के प्रहरियों ने भारत के संघीय ढांचे को मजबूत करने में सदैव अपना योगदान दिया है, लेकिन आजादी के इतने दशकों बाद भी इस देश में पत्रकारों की सुरक्षा को लेकर कोई ठोस कदम नहीं उठाए जा सके। भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनियां में अवैधानिक कृत्यों के खिलाफ आवाज उठाने वाले पत्रकारों पर हमले हो रहे हैं। उनकी आवाज को दबाने के प्रयास चलते रहते हैं, सच को सामने लाने की कीमत उन्हें अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है। भारत में पत्रकार प्रोटेक्शन एक्ट लागू करने को लेकर सालों से हो हल्ला मचता आया है, लेकिन केंद्र सरकार कोई ऐसा कानून नहीं बना सकी, जिससे कलम के सिपाहियों की जिंदगी सुरक्षित हो जाए। महाराष्ट्र सरकार ने जरूर पिछले कार्यकाल में पत्रकार सुरक्षा कानून पारित किया, जिसके अनुसार पत्रकारों पर हमला करने वालों पर तीन साल की सजा और 50 हजार तक जुर्माने का प्रावधान किया गया। यह भी तय किया गया कि हमला करने वाले को ही इलाज का खर्च और मुआवजा देना होगा। इसके साथ आरोपियों के खिलाफ दीवानी न्यायालय में मुकदमा चलाया जाएगा। महाराष्ट्र के बाद छत्तीसगढ़ सरकार भी पत्रकारों की सुरक्षा से जुड़े मामले को लेकर एक्टिव हुई और कुछ प्रावधान निश्चित किए, लेकिन अन्य राज्य सरकारों ने इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाए। आबादी के बाद के इतने सालों में सरकारों ने अपनी जनकल्याणकारी नीतियों के प्रचार प्रसार के लिए लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का उपयोग तो जमकर किया, लेकिन इसकी सुरक्षा को लेकर जो मानक तय किए जाने चाहिए थे, उस पर ठोस पहल नहीं की गई। संसद के भीतर माननीयों ने इस विषय को कम ही उठाया होगा, क्योंकि जांचों में पत्रकारों के साथ होने वाली घटनाओं के पीछे ऐसे सिंडिकेट का हाथ निकलता है, जो नेताओं को भी अपनी पूंजी से नियंत्रित करता है। बीजापुर में मुकेश चंद्राकर ऐसे ही लोगों के खिलाफ आवाज उठा रहे थे।
आईपीआई की रिपोर्ट के मुताबिक 1997 से लेकर 2020 के बीच 23 साल में 1928 पत्रकारों की हत्या हुई है। इसमें भारत में 1997 से 2020 के बीच कुल 74 पत्रकारों की हत्या हुई है। भारत में 2014 से 2020 के बीच 27 पत्रकार मारे गए जबकि 2009 से 2013 के बीच 22 पत्रकारों की हत्या हुई है। हालांकि इस रिपोर्ट में 2019 में भारत में किसी पत्रकार की हत्या की बात नहीं है। आंकड़ों के मुताबिक दस साल पहले नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से भारत में मारे गए 28 पत्रकारों में से लगभग आधे, जिनमें मीडिया निदेशक, खोजी पत्रकार और संवाददाता शामिल हैं, पर्यावरण से जुड़ी कहानियों पर काम कर रहे थे। रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (आरएसएफ) का कहना है कि पत्रकारों की सुरक्षा और उनके खिलाफ़ हिंसा के अपराधों के लिए दंड से मुक्ति का मुकाबला करना उन चुनावों के केंद्र में होना चाहिए था जिसमें मौजूदा सरकार एक और कार्यकाल की मांग कर रही थी, लेकिन विडंबना है कि तीसरा कार्यकाल शुरू होने के करीब 6 माह बीतने के बावजूद संसद में इस विषय को लाया नहीं जा सका। आईपीआई की रिपोर्ट के मुताबिक, लैटिन अमेरिका ऐसी जगह है जहां पत्रकारों की सबसे अधिक हत्याएं होती हैं। यहां हर महीने 12 पत्रकारों से अधिक की हत्या होती है और इसमें सबसे ज्यादा हत्याएं मैक्सिको में होती हैं। इन जगहों पर अधिकतर पत्रकार नशीली दवाओं की तस्करी और राजनीतिक भ्रष्टाचार की रिपोर्टिंग करते हैं। रिपोर्ट में हत्या की जांचों पर भी सवाल उठाया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि जिन मामलों में पत्रकारों की हत्या हुईं हैं, उनकी जांच बेहद धीमी है। कई जगह तो सालों से मामला लंबित है।
उत्तर प्रदेश में जनसंदेश टाइम्स के रिपोर्टर करुण मिश्रा की हत्या कर दी गई। बिहार में हिंदुस्तान के रिपोर्टर रंजन राजदेव को मौत के घाट उतार दिया गया। जांच में सामने आया कि अवैध खनन गतिविधियों पर काम करने के कारण दोनों को मोटरसाइकिल सवारों ने गोली मार दी। एमपी के स्थानीय टीवी चैनल न्यूज वर्ल्ड के लिए रेत माफिया को कवर करने वाले रिपोर्टर संदीप शर्मा की मार्च 2018 में जानबूझ कर एक डंपर-ट्रक से कुचलकर जान लेने की घटना को लोग भूले नहीं होंगे। जून 2020 में उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में कंपू मेल स्थानीय समाचार पत्र के रिपोर्टर शुभम मणि त्रिपाठी की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी , जब उन्होंने चिंता व्यक्त की थी कि रेत माफिया द्वारा अवैध उत्खनन के मामलों पर उनके काम के कारण उन्हें निशाना बनाया जा सकता है। 2014 से पत्रकारिता के सिलसिले में मारे गए 15 अन्य पत्रकारों को भ्रष्टाचार, संगठित अपराध, चुनाव और माओवादी विद्रोह से जुड़ी खबरों पर काम करने के लिए निशाना बनाया गया था। 28 घातक पीड़ितों में एक महिला गौरी लंकेश थी।
भारत में पूंजीपतियों व कारोबारियों के खिलाफ लिखना भी खतरनाक हो गया है। यदि ऐसे धन्ना सेठों का गठजोड़ राजनेताओं से, विशेषकर सत्ता पक्ष से है तो समझिये कि उनके खिलाफ या उनके व्यवसायिक हितों पर चोट करने वाली कोई भी खबर लिखनी या दिखानी खुद को संकट में डालने जैसा हो गया है। यह संकट पत्रकार के पूरे परिवार पर होता है। हाल के वर्षों में एक तरह से व्यवसायियों और नेताओं के बीच अघोषित सी संधि बनी हुई है जिसके अंतर्गत दोनों पक्ष परस्पर हितों का संरक्षण करते हैं। कारोबारी सियासतदानों को चुनाव के वक्त और ज़रूरी मौकों पर आर्थिक मदद देते हैं। इसके बदले में नेता यदि सत्ता में हों तो उनके व्यापार को संरक्षण देने और उनके मार्ग में आने वाले अवरोधों को खत्म करने का काम करते हैं। विपक्ष में रहकर भी राजनीतिक व्यक्ति व दल अन्य तरीकों से उनकी मदद करते हैं। इनमें प्रमुख तो यही है कि विरोधी दल उन्हें बख्श दें। यानी उनके कामों पर उंगलियां न उठायें। यह भारतीय पत्रकारिता की नयी तस्वीर है। न तो पत्रकार भ्रष्टाचारी अधिकारियों के खिलाफ कुछ लिख सकता है और न ही कारोबारियों के। शासन के खिलाफ तो बिलकुल नहीं।
हालिया दौर में अनेक ऐसे शर्मनाक वाकये हुए हैं जो किसी भी लोकतांत्रिक देश का सर शर्म से झुकाने के लिये पर्याप्त हैं। युवा पत्रकार मुकेश चंद्राकर के साथ हुई घटना के बाद भोपाल, जबलपुर, कटनी, सागर, दमोह समेत अनेक हिस्सों में पत्रकारों ने प्रदर्शन और ज्ञापनों के जरिए अपना आक्रोश प्रकट किया है। महामहिम राज्यपाल के नाम सौंपे गए ज्ञापनों में मांग की जा रही है कि मध्यप्रदेश की मोहन यादव सरकार पत्रकारों की सुरक्षा से जुड़े विषय पर ऐसी पहल करे जो पूरे देश के लिए नजीर बन जाए। क्यों न पत्रकार प्रोटेक्शन एक्ट लागू करने की शुरुआत मध्यप्रदेश से हो। पत्रकार संगठन सालों से इस मांग को बुलंद कर रहे है। एक बार फिर यह सवाल ज्वलंत हो गया है।

