ऋषि परम्परा:महाभारत में थे तीन कृष्ण, इनमें से एक कृष्ण आगे चलकर महर्षि वेदव्यास के नाम से हुए प्रसिद्ध
- सनातन धर्म की ऋषि परम्परा में महर्षि वेदव्यास अपने समस्त पूर्ववर्ती व परवर्ती ऋषियों में सबसे अलग व अद्वितीय हैं।
- वे महान वशिष्ठ वंश में जन्म लेकर न केवल वेदों का सम्पादन कर अमर हुए बल्कि उन्होंने भावी पीढ़ियों के मार्गदर्शन के लिए पंचम वेद महाभारत की रचना कर समाज निर्माण में अतुलनीय योगदान भी दिया।
- ऋषि परंपरा की इस कड़ी में इन्हीं महान महर्षि वेदव्यास और उनकी नाम–परंपरा का एक परिचय…
आदिकाव्य रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि थे, लेकिन… महर्षि वेदव्यास की प्रतिष्ठा त्रिकालदर्शी ऋषि, महाकवि और असंख्य पुराणों के रचनाकार के रूप में इतनी गहन है कि भारतीय संस्कृति में वे ‘गुरु’ के पर्याय हैं।
महर्षि वेदव्यास धृतराष्ट्र, पांडव व उन विदुर के जन्मदाता भी हैं, जिनकी संतति के बीच का द्वंद्व आगे चलकर महाभारत का कारण सिद्ध हुआ।
महर्षि वेदव्यास अकेले महामानव हैं जो एक लाख 217 श्लोक की महाभारत के न केवल रचयिता अपितु उसके एक प्रमुख पात्र भी हैं।
कृष्ण जो वेदव्यास कहलाए…
महाभारत में तीन कृष्ण हैं।
पहले वासुदेव श्रीकृष्ण जो महाभारत के नायक होकर भगवान के रूप में पूज्य हैं, दूसरे पाण्डु पुत्र अर्जुन और तीसरे महर्षि वेदव्यास जो महाभारत के दृष्टा व सृष्टा हैं।
महाकाव्य के आदिपर्व में वेदव्यास के जन्म की कथा है और वंश परम्परा का उल्लेख भी, जिसके अनुसार वशिष्ठ के पुत्र शक्ति और शक्ति के पुत्र पराशर हुए। पराशर स्वयं सिद्ध महर्षि थे, जिन्होंने दाशराज की कन्या सत्यवती से वेदव्यास को जन्म दिया था। जन्म के समय इनका वर्ण श्याम था अतः नाम कृष्ण हुआ। इनका जन्म यमुना नदी के द्वीप में हुआ था अतः कृष्ण द्वैपायन के रूप में जाने गए।
आगे चलकर कृष्ण द्वैपायन ने वेदों का व्यास अर्थात् विभाजन, विस्तार व सम्पादन किया इस कारण मूल नाम से इतर लोक में वेदव्यास के नाम से प्रसिद्ध हुए…संसार के पहले आशुवक्ता
महर्षि वेदव्यास ने स्वयं जगतपिता ब्रह्मा की आज्ञा से महाभारत की रचना की थी। वह कथा अत्यंत विस्तृत थी अतः व्यासजी ने उसे साक्षात गणेशजी को ‘डिक्टेट’ कराया था। इस तरह वे किसी महाग्रन्थ के संसार के पहले आशुवक्ता हैं और विघ्नेश्वर गणेशजी पहले आशुलिपिक हैं। लिखने के प्रस्ताव पर गणेश जी ने शर्त रखी थी कि ‘वे तभी इस ग्रन्थ के लेखक बनेंगे जब एक क्षण के लिए भी उनकी लेखनी न रुके। व्यासजी ने शर्त स्वीकार की लेकिन कहा कि ‘बिना समझे एक भी अक्षर न लिखना।’ तब व्यासजी ऐसे गूढ़ श्लोक भी बोलते गए जिन्हें समझने में गणेशजी को समय लगा और इस बीच व्यासजी ने नए श्लोक रचकर गणेशजी के साथ सृजन का वह सबसे बड़ा ‘प्रोजेक्ट’ पूरा किया। जिसके बारे में कहा गया कि–
अज्ञानतिमिरान्धस्य लोकस्य तु विचेष्टत:।
ज्ञानाञ्जनशलाकाभिर्नेत्रोन्मीलनकारकम्।।
अर्थात्– संसारी जीव अज्ञान के अंधकार से छटपटा रहे हैं, जिनके लिए यह महाभारत ज्ञानञ्जन है। जिसकी शलाका को लगाने से आंखें खुल जाती हैं।वेदों का विस्तार और विभाजन
हिन्दू शास्त्रों की मान्यता है कि प्रत्येक युग में स्वयं ईश्वर अवतार ग्रहण कर वेदों का युगानुरूप विस्तार करते हैं। एक गणना के अनुसार अब तक 28 व्यास हो चुके हैं। द्वापर युग में यह गौरव श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास को मिला।
आदिपर्व की कथा अनुसार जन्म के बाद कृष्ण द्वैपायन ने माता सत्यवती से तपस्या के लिए जाने की आज्ञा मांगी किंतु माता इसके लिए राज़ी न थी। तब पुत्र ने वचन दिया कि उनके स्मरण करते ही वे योग शक्ति से तत्क्षण प्रस्तुत हो जाएंगे और फिर मां की आज्ञा लेकर वे तपस्या में लीन हो गए। यद्यपि वे ईश्वर के अवतार होकर तप से परे स्वयं सिद्ध थे लेकिन लोक कल्याण के लिए उन्होंने तपस्या का सुंदर आदर्श रखा। साधना के दौरान उन्होंने पाया कि हर युग में धर्म का एक पाद लुप्त हो रहा है, अतः उन्होंने वेदों का विस्तार किया। महर्षि ने चारों वेद तथा पंचम वेद महाभारत का अध्ययन सुमन्तु, जैमिनि, पैल, पुत्र शुकदेव व शिष्य वैशम्पायन को कराया। महर्षि वेदव्यास ने श्रुतियों के तात्पर्य-निर्णय के लिए ब्रह्मसूत्रों का प्रणयन किया तथा लोक प्रसिद्ध 18 पुराणों की रचना करके उपाख्यानों द्वारा वेदों को समझाने का अपूर्व अनुष्ठान किया।
हिंदुओं के अनेक धर्मग्रंथ चाहे किसी अन्य के लिखे हों किन्तु लोक में वेदव्यास कृत ही मान्य हैं। इसी से वेदव्यास की प्रामाणिकता का अनुमान लगाया जा सकता है।धर्म का आचरण,
कर्म का उपदेश
महर्षि वेदव्यास का आश्रम चीन के उस पार सुदूर मेरु पर्वत पर था। इसका संकेत महाभारत की उस कथा से मिलता है जिसमें उनके पुत्र शुकदेव उस आश्रम से चलकर ज्ञान प्राप्त करने राजा जनक के पास मिथिलापुरी आए थे। शांतिपर्व की इस कथा में पिता-पुत्र के बीच अद्भुत ज्ञानवर्धक संवाद है। इसमें महर्षि वेदव्यास की पुत्र के माध्यम से जगत को दी गई धर्माचरण व कर्म की वह शिक्षा भी है, जिसका अनुकरण जीवन का रूपांतरण करने में समर्थ है। शुकदेव से महर्षि कहते हैं –
अह:सु गण्यमानेषु क्षीयमाणे तथाSSयुषि।
जीविते लिख्यमाने च किमुत्थाय न धावसि।।
अर्थात्– तुम्हारी आयु के दिन गिने जा रहे हैं। आयु क्षीण होती जा रही है और जीवन मानो कहीं लिखा जा रहा है (समाप्त हो रहा है)। फिर तुम उठकर भागते क्यों नहीं हो? (शीघ्रतापूर्वक कर्तव्य पालन में लग क्यों नहीं जाते हो?) इसी प्रकार–श्व: कार्यमद्य कुर्वीत पूर्वाह्णे चापराह्णिकम्।
न हि प्रतीक्षते मृत्यु: कृतं वास्य न वाकृतम्।।
अर्थात्– जो काम कल करना है, उसे आज ही कर लेना चाहिए और जो दोपहर बाद करना हो, उसे पहले ही पहर में पूरा कर डालना चाहिए। क्योंकि मौत यह नहीं देखती कि इसका काम पूरा हुआ है या नहीं!
पिता-पुत्र का यह संवाद अनेक धर्मग्रंथों में सुलभ है लेकिन सामवेद की परंपरा के एक ग्रन्थ ‘महोपनिषद’ में भी इसकी सुंदर कथा प्राप्त है। मात्र छह अध्याय के इस लघु उपनिषद के दूसरे अध्याय में महर्षि ने अनुपम जीवन सूत्र कहे हैं।धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सन्तति महर्षि वेदव्यास की चार संतानें हैं। यह अद्भुत संयोग है कि उनके चार पुत्र पुरुषार्थ चातुष्टय के प्रतीक हैं। दासी पुत्र विदुर धर्म के अवतार तो अंबिका पुत्र धृतराष्ट्र अर्थ के पर्याय और अम्बालिका की कोख से जन्मे पाण्डु काम के प्रतीक हैं। इन तीनों के चरित्र व आचरण क्रमशः धर्म, अर्थ व काम केंद्रित रहे। मृत्यु बाद विदुर का धर्मदेव और धृतराष्ट्र का कुबेर लोक जाना इसी की पुष्टि करता है जबकि पाण्डु का अंत कामवासना के कारण ही हुआ। किन्तु इन तीन से परे वेदव्यास के सबसे महान पुत्र शुकदेवजी हैं जो यज्ञ की अरणि के मंथन से चमत्कारी रूप से जन्मे थे। शुकदेवजी ने वेदव्यास की ज्ञान परम्परा की रक्षा की और मोक्ष का सर्वोच्च आदर्श प्रस्तुत किया। हिन्दू संस्कृति में शुकदेवजी महापुराण श्रीमद्भागवत के प्रवक्ता के रूप में प्रतिष्ठित हैं।
- प्रमुख, प्रभावी, पूज्य और चमत्कारी
महर्षि वेदव्यास महाभारत के सबसे प्रमुख, प्रभावी, पूज्य और चमत्कारी पात्र हैं। संसार के किसी ग्रन्थ में ऐसा दूसरा उदाहरण मिलना मुश्किल है जिसका लेखक अपनी कृति का एक प्रमुख पात्र भी है। इतने प्रभावी कि घटनाएं उसके संकेत मात्र से घटती हैं और इतने चमत्कारी कि कुरुवंशी की पीढ़ियां उसके चमत्कारों की साक्षी बनती हैं।
अपनी मां सत्यवती की आज्ञा पर वेदव्यास ने शांतनु पुत्र विचित्रवीर्य की विधवाओं से न केवल धृतराष्ट्र, पाण्डु व विदुर को जन्म दिया था बल्कि उन्हीं की कृपा से धृतराष्ट्र को सौ पुत्र व एक पुत्री हुए थे। महाभारत युद्ध की आहट को महर्षि वेदव्यास ने दुर्योधन के जन्म के साथ ही सुन लिया था। उनकी ही कृपा से धृतराष्ट्र के सारथी संजय को दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई थी। कौरवों के षड्यंत्र से प्राणरक्षा के लिए इनकी ही आज्ञा से कुंती व पाण्डव एकचक्रा नगरी और फिर द्रौपदी स्वयंवर में गए थे। महायुद्ध के बाद इन्होंने दिवंगत योद्धाओं को एक रात्रि के लिए गंगा नदी से प्रकट कर परिजनों से मिलवा दिया था। युद्ध में विजयी पांडवों को इन्होंने ही अश्वमेध यज्ञ की दीक्षा दी थी और जब पाण्डव हिमालय चले गए तब ये जनमेजय के नागयज्ञ में भी उपस्थित हुए थे। उस यज्ञ में वेदव्यास ने राजा जनमेजय को उसके मृत पिता अभिमन्यु पुत्र परीक्षित के दर्शन करा दिए थे। इसी यज्ञ में इनकी आज्ञा से महर्षि वैशम्पायन ने पहली बार सार्वजनिक रूप से महाभारत की कथा सुनाई थी।