आधी आबादी को लेकर अपना नजरिया और व्यापक करें राजनीतिक दल
कई जिलों में अध्यक्ष बनाकर भाजपा ने कर दी पहल, अब अन्य दलों को भी इस तरफ देखना होगा

नजरिया…..
( आशीष सोनी )
समूह संपादक, यशभारत
राजनीति में महिलाओं की भागीदारी को मजबूती देने देश की संसद में महिला आरक्षण बिल पास हो जाने के बाद राजनीतिक दलों ने आधी आबादी को लेकर नए सिरे से जमावट शुरू कर दी है। सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने इस तरफ तेज कदम बढ़ाते हुए हाल के संगठन चुनाव में महिलाओं को खास पदों में लाकर अन्य दलों के सामने यह संदेश दे दिया है कि उन्होंने अपने यहां 33 फीसद आरक्षण के हिसाब से भविष्य की तैयारी के लिए कदम बढ़ा दिए हैं। केवल मध्यप्रदेश में अब तक घोषित हुए भाजपा के 46 जिलाध्यक्षों में से 5 जिलों में महिलाओं को मौका दिया गया है, यह संख्या सारे जिलों की घोषणा होने तक बढ़ भी सकती है। हालांकि 33 फीसद के हिसाब से यह आंकड़ा कम है, फिर भी मुख्य प्रतिद्वंद्वी दल कांग्रेस समेत अन्य पार्टियों को अब अपने संगठनों की आंतरिक व्यवस्था में महिलाओं की हिस्सेदारी तय करना होगी। नारी शक्ति वंदन विधेयक अगले आम चुनाव में लागू होने के बाद लोकसभा की 543 सीटों में से 181 सीटें महिलाओं के लिए रिजर्व हो जाएंगी। वर्तमान स्थिति में लोकसभा की 131 सीटें अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित हैं, जिनमें से महिलाओं की हिस्सेदारी 43 सीटों की हो जाएगी। सियासी दल इसी बात को ध्यान में रखकर अपने यहां महिला नेतृत्व तैयार करने में लग गए हैं।
भारत के परिपक्व होते लोकतंत्र में आधी आबादी की भागीदारी को और अधिक प्रभावी बनाने की दिशा में दशकों से प्रयास शुरू हो चुके हैं। पिछली कांग्रेस सरकार में महिला आरक्षण बिल को लागू करने की योजना पर काम तेज किया, लेकिन कुछ व्यवधानों से इसे दोनों सदनों में मंजूरी नहीं मिल पाई। केंद्र की सत्ता में आने के बाद भारतीय जनता पार्टी ने इस दिशा में कदम बढ़ाते हुए नारी शक्ति विधेयक को दोनों सदनों में मंजूरी दिला दी। साधारणतया सभी दलों ने इसका समर्थन किया। सारी बिसात अब अगले लोकसभा चुनाव और राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए बिछने जा रही है। संगठन से लेकर सत्ता तक एक बड़ी भूमिका में जब नारी शक्ति होगी, तब पूरी दुनियां में भारत यह संदेश देने में कामयाब होगा कि हमने अपने लोकतंत्र को सही अर्थों में मजबूत कर लिया है। यह ऐसा देश बन चुका है, जिसमें नारी सशक्तिकरण की बातें सिर्फ किताबों में नहीं, बल्कि धरातल पर नजर आती हैं। सदनों की 33 फीसद सीटें जब महिला प्रतिनिधियों से भरी होंगी तब उन सदनों में बनने वाले कानूनों में भी आधी आबादी की चिंता शामिल होगी। भारत ने श्रीमती इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद पूरी दुनियां का ध्यान अपनी ओर खींचा। अपने फौलादी इरादों और फैसलों से श्रीमती गांधी ने साबित भी किया कि अगर अवसर मिले तो महिलाएं घर के साथ देश भी चला सकती हैं। उनसे प्रेरणा लेकर देश में पिछले चार दशकों में तेजी से महिला नेतृत्व तैयार हुआ। कुछ वर्षों के इतिहास में नजर डालें तो भारत की राजनीति में अपना वर्चस्व स्थापित करने वाली महिलाओं की पूरी कतार नजर आती है। भारत की आजादी में अगर महिलाओं ने पुरुषों के साथ जन जागरण का काम किया तो आजादी के बाद सरकारों में भी अपनी सशक्त भूमिका का निर्वाह किया। सरोजनी नायडू, नीरा आर्या और कस्तूरबा गांधी आजादी के पहले महिलाओं के लिए प्रेरणा का काम करती रहीं तो आजादी के बाद के भारत में इंदिरा गांधी राजमाता सिंधिया, सोनिया गांधी, शीला दीक्षित, ममता बैनर्जी, वसुंधरा राजे सिंधिया, जयललिता, मायावती, सुषमा स्वराज, निर्मला सीतारमण, उमा भारती, प्रियंका गांधी, डिंपल यादव, स्मृति ईरानी, अंबिका सोनी, आतिशी मर्लेना, सुमित्रा महाजन से लेकर अनेक नाम ऐसे हैं जिन्होंने अपनी क्षमता का लोहा मनवाया और साबित किया कि वे राजनीति में भी पुरुषों से पीछे नहीं। राज्यों की सियासत में सक्रिय महिलाओं की तो बड़ी फेहरिस्त है। भारत ऐसा देश है जहां देश के सर्वोच्च राष्ट्रपति पद पर भी प्रतिभा पाटिल और द्रोपदी मुर्मू ने पहुंचकर इतिहास रचा।
केंद्र और राज्यों की सियासत में सैकड़ों ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे जब महिला नेतृत्व ने अपने निर्णयों से देश की आवाम को चौंकाया और अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति से बड़े और कड़े फैसले किए। इस सबके बावजूद अभी राजनैतिक दलों को अपने संगठनों की सोच को और व्यापक स्वरूप देना होगा। उन्हें अपना नजरिया बदलना होगा। देखा गया है कि जिन महिलाओं का ताल्लुक राजनीतिक परिवारों से होता है, उन्हें सहजता से अवसर मिल जाते हैं किंतु जिनके आगे पीछे कोई राजनीतिक ताकत नहीं होती उनके हिस्से सिर्फ संघर्ष आता है। इसलिए संगठन स्तर पर ऐसा बनाव होना चाहिए जिसमें सक्रिय महिलाओं का मूल्यांकन हो और उसी के अनुरूप उन्हें जगह मिले। परिवार के ठप्पे के साथ अगर टिकटें तय होंगी तो साधारण महिलाएं सियासत में किसी मुकाम का सपना नहीं देख सकती। आंकड़ों के मुताबिक, अधिकतर महिला उम्मीदवार जो जीत दर्ज कर संसद का रास्ता तय करती हैं, उनका संबंध किसी-न-किसी राजनीतिक या प्रभावशाली परिवार से रहा है। चाहे वह सपा से डिंपल यादव हों, एनसीपी से सुप्रिया सुले, राजद से मीसा भारती, अकाली दल से हरसिमरत बादल या बीजेपी से बांसुरी स्वराज। इस बार कई युवा महिलाएं भी सांसद चुनी गई हैं. सपा की प्रिया सरोज, लोजपा से शांभवी चौधरी, कांग्रेस से प्रियंका सिंह और संजना जाटव पहली बार सांसद बनी हैं। इन सबकी उम्र भी कम है, लेकिन इनमें से अधिकतर महिलाएं राजनीतिक परिवारों से ही आती हैं।
भारत में 1952 में पहली बार लोकसभा चुनाव हुए थे। पहली लोकसभा में जहां महिला सांसदों का प्रतिनिधित्व पांच फीसदी था, तब 22 महिलाएं सांसद बनी थीं. वहीं 17वीं लोकसभा में 78 महिलाओं के साथ यह बढ़कर 14.36 फीसदी तक पहुंचा. 2024 के आम चुनावों के बाद यह घटकर अब 13.63 फीसदी पर आ गया है। पिछली लोकसभा के मुकाबले महिला सासंदों की संख्या ऐसे समय में कम हुई है, जब भारत में महिला आरक्षण विधेयक को मंजूरी मिल चुकी है. हालांकि, यह विधेयक अब तक लागू नहीं हुआ है लेकिन पार्टियों की उम्मीदवारों की लिस्ट में महिलाओं की मौजूदगी को देखते हुए उनकी प्रतिबद्धता पर सवाल उठना लाजिमी है। इस विधेयक के तहत लोकसभा और प्रदेश विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित करना अनिवार्य है। जेंडर कोटा महिलाओं का राजनीति में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने का एक बेहद महत्वपूर्ण रास्ता है। भारतीय पार्टियों के इस साल के टिकट के आंकड़ों को देखते हुए कह सकते हैं कि अधिकतर पार्टियां 33 फीसदी प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लक्ष्य से बेहद दूर हैं। इन तमाम स्थितियों के बीच हर पार्टी को कम से कम 33 प्रतिशत महिलाओं को टिकट तो देना ही होगा नहीं तो उन्हें काफ़ी आलोचनाओं का सामना करना पड़ेगा। यहां ये भी देखना होगा कि वो कैसी महिलाओं को टिकट देंगे। ज़मीनी स्तर पर जो महिलाएं पंचायत या स्थानीय निकायों में काम कर रही हैं, उनकी संख्या करीब 15 लाख है और वे तैयार हैं। वे अब ज़्यादा जागरूक हैं और अपने अधिकारों के लिए सशक्त होकर अपनी बात रखती हैं। ऐसे में पार्टियों को इन महिलाओं को राज्य और राष्ट्रीय राजनीति में मौका देना चाहिए।पंचायतों और नगरीय निकायों में पहले कई पंच और पार्षद पतियों के उदाहरण सामने आते थे लेकिन पिछले दस साल के मुक़ाबले इसमें कमी आई है, लेकिन एक पक्ष ये सवाल भी उठाता है कि अगर महिलाओं को टिकट भी दे दिया जाए तो उनका जीतना कितना सभंव हो पाएगा? ये पैमाना राजनीतिक दलों के फैसले प्रभावित कर देता है, क्योंकि आखिरकार सरकारों के गठन के लिए तो नंबर्स चाहिए, और बहुमत लाने में किसी तरह का जोखिम कोई दल कैसे उठाना चाहेगा?