दम तोड़ते सरकारी अस्पताल, कराहती व्यवस्थाएं

• नजरिया : आशीष रैकवार
पत्रकार, यशभारत, कटनी
सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर सरकार जितने भी दावे-वादे कर ले, हकीकत इससे कोसों दूर है। स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने के लिए अब तक किये गए प्रयास नाकाफी साबित हो रहे हैं। इसका मुख्य कारण अस्पतालों में लंबे समय से पदस्थ स्टाफ है, जो अपने कर्तव्य के प्रति न केवल उदासीन बना हुआ है, बल्कि चाहकर भी सुधार की तरफ कदम नहीं बढ़ाना चाहता। मोटी पगार लेने के बाद भी मरीजों के प्रति उनका रवैया संवेदनशील नहीं है, परिणामस्वरूप सरकारी अस्पताल दम तोड़ते और व्यवस्थाएं कराहती नजर आ रहे हैं।
पीडि़त मानवता की सेवा का व्रत लेकर चिकित्सकीय पेशे में आए डॉक्टरों से इस तरह की उम्मीद नहीं की जा सकती कि वो अस्पताल में चेहरा देखकर मरीजों का उपचार करें, जबकि होना यह चाहिए कि प्रत्येक मरीज के साथ उसी तरह का व्यवहार हो, जैसा प्राइवेट अस्पताल में डॉक्टर मरीजों के साथ करते हैं। वैसे देखा जाए तो पिछले एक दशक में स्वास्थ्य सेवाओं में काफी कुछ सुधार देखने को मिला है। कुछेक घटनाओं को छोड़ दिया जाए तो सरकारी अस्पतालों में मरीजों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं मिली हैं, इसके बावजूद प्रदेश के छोटे जिलों, जहां सीमित स्टाफ और सीमित संसाधन है, वहां की स्थितियां बड़े शहरों की अपेक्षा अलग है। आज भी ग्रामीण इलाके के लोग बेहतर इलाज के लिए यहां-वहां भटकते रहते हैं। कईयों बार इलाज में देरी की वजह से मरीजों की जान तक चली जाती है। अस्पताल में मरीज, इस उम्मीद के साथ इलाज कराने जाता है कि उसे यहां इलाज के साथ ही हर तरह की सुविधाएं मिलेगी, लेकिन हकीकत में ऐसा होता है।
सरकार स्वास्थ्य सुविधाओं की बेहतरी के लिए करोड़ों रूपए पानी की तरह बहा रही है। अस्पतालों में डॉक्टरों और नर्सिंग स्टाफ की नियुक्ति को पोस्टेड कने के साथ ही अत्याधुनिक मशीनें लगाकर मरीजों को नि:शुल्क जांच की सुविधा मुहैया कराई जा रही है। अस्पतालों में बिस्तरों की संख्या बढ़ाकर ज्यादा से ज्यादा मरीजों को स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान करने के लिए शासन और स्थानीय स्तर पर अधिकारी इन सुविधाओं की मॉनीटरिंग भी कर रहे हैं, लेकिन इसके बाद भी प्रदेश में स्वास्थ्य सुविधाएं पटरी पर नहीं आ पा रहीं हैं तो इसके पीछे दोषी कौन है।
जिला मुख्यालय में स्थित अस्पतालों की तुलना में ग्रामीण इलाकों के अस्पतालों में मनमानी ज्यादा है। यहां एक तो पहले से स्टाफ की कमी है और जो स्टाफ है भी तो वो जिला व तहसील मुख्यालयों से अप-डाउन कर रहा है। यही कारण है कि ग्रामीण इलाकों की स्वास्थ्य सुविधाएं बद से बदत्तर होती जा रही है। इन इलाकों में सरकार की योजनाएं भी लोगों को फायदा नहीं पहुंचा पा रही है। कुछ साल पहले जननी सुरक्षा एक्सप्रेस योजना शुरू की गई थी। योजना के तहत गर्भवती महिलाओं को समय पर अस्पताल पहुंचाने का प्रावधान था, जिससे सुरक्षित प्रसव कराया जा सके, लेकिन विडम्बना यह है कि जननी सुरक्षा एक्सप्रेस योजना भी देखरेख के अभाव में बंद होने की कगार पर पहुंच गई है। नतीजा यह है कि आज भी गांव में जब किसी महिला को प्रसव पीड़ा होती है, तो समय पर वाहन की सुविधा उपलब्ध नहीं हो पाती और जब तक महिला अस्पताल की चौखट पर पहुंचती है, तब तक वह दम तोड़ देती है। इस तरह की कई घटनाएं बीते कुछ समय में सामने आई है। इसके बाद भी सबक नहीं लिया जा रहा। सरकारी अस्पतालों में व्यवस्थाओं को पटरी पर लाने के लिए जारी होने वाले आदेशों-निर्देशों को रद्दी की टोकरी में डाल दिया जाता है। ऐसा नहीं है कि सरकार के इंतजामों में कोई कमी है, विडम्बना इस बात की है कि सरकार की योजनाओं को धरातल पर उतारने की जिम्मेदारी जिन कंधों पर है, वे अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़े हुए हैं। यही कारण है कि सरकारी अस्पतालों की बजाय निजी अस्पतालों पर विश्वास बढ़ता जा रहा है। सरकारी अस्पतालों की तुलना में निजी अस्पतालों में भले ही इलाज महंगा हो, परन्तु जब बात जिंदगी की हो तो लोग कर्ज लेकर भी अपने स्वजनों का इलाज निजी अस्पतालों में कराते हैं। मानवीय दृष्टिकोण से इस ओर भी सोचा जाना चाहिए, जिससे सरकारी अस्पतालों में मरीज को तत्काल इलाज मिले।

